आदर और समान पर निबंध
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इंसान के लिए मान-सम्मान की अहमियत प्राणों के बराबर ही मानी गई है। जिस तरह प्राण चले जाने पर शरीर निष्क्रिय हो जाता है। उसी तरह अपमान होने या सम्मान छिन जाने पर जीवित इंसान भी प्राणहीन महसूस करता है। यही कारण है कि हिन्दू धर्म शास्त्रों में सुखी जीवन के लिये मात्र सम्मान बंटोरने के लिये ही कर्म, व्यवहार की सीख नहीं दी गई, बल्कि उससे भी अधिक महत्व सम्मान देने को बताया गया है। हिन्दू संस्कृति में बड़ों का सम्मान व सेवा का व्यवहार व संस्कार में बहुत महत्व बताया गया है। तमाम हिन्दू धर्मग्रंथ जैसे रामायण, महाभारत आदि में बड़ों के सम्मान को सर्वोपरि बताया गया है। इसी प्रकार आचार्यों ने प्रेम के आठ सूत्र बताये हैं- श्रद्धा, साधु सत्संग, भजन क्रिया, निष्ठा, रुचि, आसक्ति, रुजता एवं भाव। जिस प्रकार मन में भाव का होना परम आवश्यक है उसी प्रकार जब तक भाव ही नहीं होगा तब तक प्रेम का अनुभव कैसे किया जा सकता है। इसलिए कहा जा सकता है कि भाव और प्रेम एक-दूसरे में समाहित से प्रतीत होते हैं।
पहले समय में बड़े-बुज़ुर्ग अपने बच्चों के लालन-पालन को अपना कर्तव्य और धर्म समझते थे और बिना किसी स्वार्थ के अपने बच्चों से प्रेम करते थे। उनका लालन-पालन स्वार्थ-रहित होता था। बड़े अपने बच्चों के लिए जीते थे और बच्चे भी अपने बड़े-बुज़ुर्गों का सह्रदय सम्मान करते थे। बड़े अपने छोटों के प्रति स्नेह, अनुराग और प्रेम भाव रखते थे। हमेशा उनके हित का ही सोचते थे। बड़ों का अपने प्रति ऐसा स्नेह, अनुराग और प्रेम भाव देख कर छोटे भी सह्रदय सम्मान करते थे। किसी भी संबंध में प्रेम और सम्मान सह्रदय रूप से आना चाहिए। ये ऐसे भाव हैं जिसके लिए किसी को भी बाध्य नहीं किया जा सकता।
पहले समय में बड़े-बुज़ुर्ग अपने बच्चों के लालन-पालन को अपना कर्तव्य और धर्म समझते थे और बिना किसी स्वार्थ के अपने बच्चों से प्रेम करते थे। उनका लालन-पालन स्वार्थ-रहित होता था। बड़े अपने बच्चों के लिए जीते थे और बच्चे भी अपने बड़े-बुज़ुर्गों का सह्रदय सम्मान करते थे। बड़े अपने छोटों के प्रति स्नेह, अनुराग और प्रेम भाव रखते थे। हमेशा उनके हित का ही सोचते थे। बड़ों का अपने प्रति ऐसा स्नेह, अनुराग और प्रेम भाव देख कर छोटे भी सह्रदय सम्मान करते थे। किसी भी संबंध में प्रेम और सम्मान सह्रदय रूप से आना चाहिए। ये ऐसे भाव हैं जिसके लिए किसी को भी बाध्य नहीं किया जा सकता।
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