Science, asked by sy978871, 4 months ago

आधुनिक कृषि मैंने वाला खेत में से किस का प्रयोग नहीं किया जाता​

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Answered by hawasinghy43gmailcom
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आधुनिक कृषि प्रणाली ने समूचे देश में अनाज के उत्पादन की वृद्धि में भारी योगदान दिया है। आधुनिक कृषि प्रणाली के प्रयोग से देश अनाज के उत्पादन में पर्याप्तता प्राप्त कर सकता है। कृषि कार्य में उपयोगी आधुनिक विधियाँ हैं- बेहतर बीजों का प्रयोग, उचित सिंचाई तथा रासायनिक खादों के प्रयोग से पौधों को पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्वों की आपूर्ति व कीटनाशकों के प्रयोग से पौधों को लगने वाली बीमारियों व कीटाणुओं का नियंत्रण। आधुनिक कृषि में ट्रैक्टर, कम्बाइन हार्वेस्टर व सिंचाई के लिये ट्यूबवेलों द्वारा आधुनिक जोताई (खेती) की विधियों का प्रयोग किया है। उच्च उत्पादकता वाले बीजों के माध्यम से खाद्य-उत्पादन में भारी वृद्धि को हरित क्रांति कहा गया है। आधुनिक कृषि का मुख्य उद्देश्य अच्छी फसल के साथ-साथ वायु, जल, भूमि व मानवीय स्वास्थ्य का संरक्षण भी होना चाहिए।

उद्देश्य

इस पाठ के अध्ययन के समापन के पश्चात, आपः

- हरित क्रांति को परिभाषित कर पाएँगे;

- भारत के प्रयोग में आने वाले ऊँची उत्पादकता के पौधों की किस्मों (HYV) के विषय में जान पाएँगे;

- खादों व कीटनाशकों की आवश्यकता का महत्त्व जान पाएँगे;

- बेहतर किस्म के बीजों, कृषि यंत्रों और सिंचाई की आवश्यकता पर पर्याप्त जोर दे सकेंगे;

- मशरूम (खुम्मी) की बुवाई, पशुपालन व मत्स्य पालन की विधियाँ जैसी नई कृषि विधियों के बारे में जान पाएँगे;

- पशुपालन को परिभाषित कर पाएँगे;

- मवेशियों का निवास, भोजन इत्यादि के सम्बन्ध में प्रबंधन प्रक्रिया का वर्णन कर पाएँगे;

- मवेशियों को साधारणतः होने वाली बीमारियों का नाम बता पाएँगे;

- मरे हुए पशुओं के निपटान का पर्यावरण पर दुष्प्रभाव से सम्बन्ध जोड़ सकेंगे;

- हार्मोनों के अविवेकपूर्ण ढंग से प्रयोग का मवेशी, इत्यादि पर दुष्प्रभाव को जान पाएँगे;

- जलीय कृषि के विपरीत प्रभावों की विवेचना कर पाएँगे।

20.1 हरित क्रांति क्या है

‘हरित क्रांति’ शब्द का अर्थ है नए पौधों की किस्मों के विकास द्वारा उत्पादन को कई गुना बढ़ाने के उपाय। उच्च उत्पादन वाली (High yielding varieties, HYVs) धान व गेहूँ की किस्में हरित क्रांति के मुख्य तत्व रहे हैं। मार्च 1968 में अमेरिकी अन्तरराष्ट्रीय विकास एजेंसी (US Agency for International Development, USAID) के संचालक विलियम गैंड ने पहली बार ‘‘हरित क्रांति’’ शब्दों का प्रयोग किया था। इस शब्द का प्रयोग नई तकनीकों द्वारा चावल, गैहूँ, मक्के और अन्य पौधों की कई गुना विकसित हुई उत्पादकता के संदर्भ में किया गया था। हालाँकि ‘हरित क्रांति’ नामक शब्दों का प्रयोग मुख्यतः गेहूँ और धान के संदर्भ में किया जाता है, परन्तु कुछ कृषि विशेषज्ञों ने मक्का, सोयाबीन व गन्ने जैसे उन अन्य अनाजों को भी इस श्रेणी में शामिल किया है, जिनके उत्पादन में, नई तकनीकों के प्रयोगों द्वारा, कई गुणा वृद्धि हुई है। जिनके द्वारा हरित क्रांति संभव हुई है, वे इस प्रकार है:-

- फसलों के उच्च उत्पादकता वाले पौधों का प्रवेशन (Introduction)।

- बहु-कृषि (सम्मिलित रूप से पौधे उगाने की प्रक्रिया), बेहतर सिंचाई व पर्याप्त मात्रा में खादों की आपूर्ति।

- बीमारियों व कीटाणुओं के विरुद्ध पौधों के संरक्षण की विधियों का प्रयोग।

- वैज्ञानिक कृषि की तकनीकों का अनुसंधान व उनका खेतों से ग्रामीण कृषकों तक स्थानान्तरण।

- खेतों से बाजार तक फसल के यातायात की बेहतर व्यवस्था करना।

आधुनिक तकनीकों के प्रयोग द्वारा पौधों (विशेषकर अनाज) के उत्पादन में महत्त्वपूर्ण वृद्धि को हरित क्रांति नाम दिया गया है।

उदाहरण के लिये, जब एक मेक्सिकन गेहूँ की किस्म (ऊँची उत्पादकता एवं अच्छी तरह सिंचाई किए हुए) का उतने ही अच्छे स्तर की भारत गेहूँ की किस्म (रोग की प्रतिरोधक क्षमता एवं अच्छी गुणवत्ता वाला अनाज) से आधुनिक तकनीक द्वारा संकरण किया गया तब एक उच्च उत्पादकता वाले और बीमारी से लड़ने में सक्षम गेहूँ की किस्म की उत्पत्ति हुई। कुछ मुख्य ‘क्रांतिकारी’ किस्मों के नाम हैं- ‘कल्याण सोना’, ‘सोनालिका’, और ‘शर्बती सोनोरा’ इत्यादि।

20.1.1 भारत में उच्च उत्पादन की किस्मों के प्रयोग का आरम्भ

कृषि के क्षेत्र में विकसित देशों के मुकाबले, हमारी औसत राष्ट्रीय उत्पादकता की दर केवल 800 किलो प्रति हेक्टेयर के स्तर की ही थी, जो कि विकसित देशों की तुलना में बहुत कम थी। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के प्राक्तन डायरेक्टर जनरल एम एस स्वामीनाथन (M.S. Swaminathan) ने पौधों की उत्पादकता के ठहराव व पौधों के उत्पादन की अस्थिरता का गहरा विश्लेषण किया तथा उन कारणों की तह तक पहुँचने की कोशिश की, जिनके कारणवश यह स्थिति विद्यमान थी। उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि उस समय प्रयोग में आने वाली लम्बी किस्मों की शारीरिक बनावट ही अधिक उत्पादन के मार्ग में एक बाधा सिद्ध हो रही थी। उन्होंने उक्त पौधों की किस्मों की उत्पत्ति की प्रक्रिया की ही जननिक कार्यशैलियों के पुनःनिर्देशन पर जोर दिया।

सन 1970-80 के दशक के दौरान, गेहूँ की जननिक प्रक्रियाओं के माध्यम से नए किस्म के बीजों वाले, उच्च उत्पादकता के छोटे आकार के गेहूँ की किस्मों का विकास किया गया। इसी दौरान कुछ महत्त्वपूर्ण किस्में, ‘कल्याण सोना’, ‘शर्बती सोनारा’, ‘सोनालिका’ जैसी ऊँची उत्पादकता की किस्मों का विकास हुआ जिन्होंने खादों और सिंचाई की ओर अच्छा रुख अपनाया।

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