Aatma ka taap summary 11th class hindi aaroh book chapter?
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प्रस्तुत पाठ ‘आत्मा का ताप’ सैयद हैदर रज़ा की आत्मकथात्मक पुस्तक का एक अध्याय है| इसका अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद मधु बी.जोशी ने किया है| यहाँ रज़ा ने चित्रकला के क्षेत्र में अपने आरंभिक संघर्षों और सफलताओं के बारे में बताया है| एक कलाकार का जीवन-संघर्ष और कला-संघर्ष, उसकी सर्जनात्मक बेचैनी, अपनी रचना में सर्वस्व झोंक देने का उसका जुनून- ये सारी चीजें इसमें बहुत रोचक व सहज शैली में उभरकर आई हैं|
एस.एच.रज़ा शुरू से ही पढ़ने में तेज थे| नागपुर स्कूल में उन्होंने प्रथम स्थान प्राप्त किया| पिता के रिटायर होने के बाद उन्होंने नौकरी ढूंढ़ना शुरू किया| गोंदिया में ड्राइंग के अध्यापक बनने के बाद उन्हें बंबई में जे.जे.स्कूल ऑफ़ आर्ट में अध्ययन के लिए सरकारी छात्रवृत्ति मिली| लेकिन देरी होने के कारण उनका दाखिला नहीं हो सका और छात्रवृत्ति वापस ले ली गई| लेकिन वे वापस नहीं लौटे और मुंबई में ही रहकर अध्ययन करने का निश्चय किया| उन्हें मुंबई का वातावरण पसंद आया| वहाँ उन्हें एक्सप्रेस ब्लॉक स्टूडियो में डिजाइनर की नौकरी मिल गई| सुबह दस से शाम छह बजे तक काम करने के बाद वे एक परिचित टैक्सी ड्राईवर के यहाँ सोने जाते थे| वहाँ वे ग्यारह-बारह बजे रात तक गलियों के चित्र या स्केच बनाते थे| कठिन परिश्रम के बाद आखिरकार उन्हें बॉम्बे आर्ट्स सोसाइटी का स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ| वे इस सम्मान को पाने वाले सबसे कम आयु के कलाकार थे| इसके दो वर्ष के बाद उन्हें फ़्रांस सरकार की छात्रवृत्ति मिल गई| उनके पहले दो चित्र नवंबर 1943 में आर्ट्स सोसाइटी ऑफ़ इंडिया की प्रदर्शनी में प्रदर्शित हुए| इस प्रदर्शनी में इनके दोनों चित्र 40-40 रूपये में बिक गए| वेनिस अकादमी के प्रोफेसर लैंगहैमर ने उनके चित्रों को खरीदना शुरू किया और इससे उनके कला के अध्ययन में जुट पाना आसान हो गया| 1947 में वे जे.जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट के नियमित छात्र बन गए|
सन् 1947 में उनकी माँ और फिर 1948 में पिता के देहांत के बाद उन पर परिवार की जिम्मेदारियों का बोझ आ गया| 25 वर्ष की आयु में ही उन्हें इन क्रूर अनुभवों से गुजरना पड़ा, लेकिन उन्होंने सामर्थ्य भर काम करके अपनी जिम्मेदारी अच्छे से निभाई| 1948 में ही श्रीनगर की यात्रा के दौरान उनकी भेंट प्रख्यात फ्रेंच फोटोग्राफर हेनरी कार्तिए-ब्रेसाँ से हुई| उन्होंने रज़ा को पेंटिंग के असली मायने समझाए| रज़ा की फ्रेंच पेंटिंग में खास रुचि थी, इसलिए उन्होंने पेरिस जाने का निश्चय किया| फ़्रांस सरकार से दो वर्ष की छात्रवृत्ति मिलने के बाद वे 2 अक्टूबर 1950 को मर्सोई पहुँचे और इस प्रकार उनके कला जीवन का प्रारंभ हुआ| इस प्रकार अनेक संघर्षों से गुजरने के बाद एस.एच.रज़ा को सफलता प्राप्त हुई|
एस.एच.रज़ा शुरू से ही पढ़ने में तेज थे| नागपुर स्कूल में उन्होंने प्रथम स्थान प्राप्त किया| पिता के रिटायर होने के बाद उन्होंने नौकरी ढूंढ़ना शुरू किया| गोंदिया में ड्राइंग के अध्यापक बनने के बाद उन्हें बंबई में जे.जे.स्कूल ऑफ़ आर्ट में अध्ययन के लिए सरकारी छात्रवृत्ति मिली| लेकिन देरी होने के कारण उनका दाखिला नहीं हो सका और छात्रवृत्ति वापस ले ली गई| लेकिन वे वापस नहीं लौटे और मुंबई में ही रहकर अध्ययन करने का निश्चय किया| उन्हें मुंबई का वातावरण पसंद आया| वहाँ उन्हें एक्सप्रेस ब्लॉक स्टूडियो में डिजाइनर की नौकरी मिल गई| सुबह दस से शाम छह बजे तक काम करने के बाद वे एक परिचित टैक्सी ड्राईवर के यहाँ सोने जाते थे| वहाँ वे ग्यारह-बारह बजे रात तक गलियों के चित्र या स्केच बनाते थे| कठिन परिश्रम के बाद आखिरकार उन्हें बॉम्बे आर्ट्स सोसाइटी का स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ| वे इस सम्मान को पाने वाले सबसे कम आयु के कलाकार थे| इसके दो वर्ष के बाद उन्हें फ़्रांस सरकार की छात्रवृत्ति मिल गई| उनके पहले दो चित्र नवंबर 1943 में आर्ट्स सोसाइटी ऑफ़ इंडिया की प्रदर्शनी में प्रदर्शित हुए| इस प्रदर्शनी में इनके दोनों चित्र 40-40 रूपये में बिक गए| वेनिस अकादमी के प्रोफेसर लैंगहैमर ने उनके चित्रों को खरीदना शुरू किया और इससे उनके कला के अध्ययन में जुट पाना आसान हो गया| 1947 में वे जे.जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट के नियमित छात्र बन गए|
सन् 1947 में उनकी माँ और फिर 1948 में पिता के देहांत के बाद उन पर परिवार की जिम्मेदारियों का बोझ आ गया| 25 वर्ष की आयु में ही उन्हें इन क्रूर अनुभवों से गुजरना पड़ा, लेकिन उन्होंने सामर्थ्य भर काम करके अपनी जिम्मेदारी अच्छे से निभाई| 1948 में ही श्रीनगर की यात्रा के दौरान उनकी भेंट प्रख्यात फ्रेंच फोटोग्राफर हेनरी कार्तिए-ब्रेसाँ से हुई| उन्होंने रज़ा को पेंटिंग के असली मायने समझाए| रज़ा की फ्रेंच पेंटिंग में खास रुचि थी, इसलिए उन्होंने पेरिस जाने का निश्चय किया| फ़्रांस सरकार से दो वर्ष की छात्रवृत्ति मिलने के बाद वे 2 अक्टूबर 1950 को मर्सोई पहुँचे और इस प्रकार उनके कला जीवन का प्रारंभ हुआ| इस प्रकार अनेक संघर्षों से गुजरने के बाद एस.एच.रज़ा को सफलता प्राप्त हुई|
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आत्मा को छोड़कर लोगो की पूजा क्यों करती है
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