अब कहां दूसरों के दुख में दुखी होने वाले पाठ में समाज की किस विसंगति को उभारा गया है
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‘अब कहाँ दूसरे के दुख से दुखी होने वाले’ नामक पाठ में मनुष्य द्वारा प्रकृति के साथ की जा रही छेड़छाड़ रूपी सामाजिक विसंगति की ओर ध्यान उभारा गया है। पाठ में यह चिंतन व्यक्त किया गया है कि किस तरह मनुष्य अपनी विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति के साथ खिलवाड़ करता जा रहा है। वह प्रकृति का सब कुछ अपने अंदर समेट लेना चाहता है, उसकी लालची प्रवृत्ति के कारण प्रकृति नष्ट होती जा रही है और प्रकृति के साथ मनुष्य द्वारा की जा रही छेड़छाड़ के फलस्वरूप प्रकृति अपना क्रोध भी दिखाने में लगी है, जिसके परिणाम स्वरूप प्राकृतिक आपदाएं उत्पन्न होने लगी है।
लेखक लेख के माध्यम से समझाना चाहता है कि मनुष्य प्रकृति के तत्वों को अपनी जागीर समझ कर उनके साथ बेहरमी से छेड़-छाड़ ना करें, बल्कि प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण ढंग से उपयोग करें ताकि प्राकृतिक संसाधनों में असंतुलन पैदा ना हो और एक स्वस्थ पर्यावरण हमेशा मौजूद रहे।
प्रकृति के सभी जीव चाहे वह जीव-जंतु हो या पेड़-पौधे या मनुष्य, कुत्ता या अन्य कोई जानवर सब ईश्वर की बनाई रचना है। उनके साथ सबके साथ सदैव उदार और समान व्यवहार करना चाहिए।
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