अबलौं नसानी, अब न नसैहौं ।
राम-कृपा भव-निसा सिरानी, जागे फिर न उसैहों ।।१।।
पायो नाम चारूचिंतामनि, उर कर ते न खसैहौं ।
स्यामरूप सुचि रूचिर कसौटी, चित-कंचनहि कसैहौं ।।२।।
परूबस जानि हँस्यो इन इन्द्रिन, निजबस वै न हँसैहौं ।
मन-मधुकर पन कै तुलसी रघुपति-पद-कमल बसैहौं ।।३।
का भावार्थ
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nahi samajh aaya kuch bhi
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