About Potter in hindi in 10 sentences
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प्रजापति अथवा कुम्हार ये मिट्टी के बर्तन बनाने के शिल्प कार्य से जुड़े कारीगर होते हैं. ये श्रीयादे को अपनी आराध्य देवी मानते हैं. भारत के लगभग सभी क्षेत्रों में कुमावत जाती के लोग रहते हैं, ये हिन्दू धर्म के अनुयायी हैं. मगर क्षेत्रीय विविधता के कारण इनके सामाजिक ढाँचे में बदलाव देखा जाता हैं. प्रशासनिक वर्ण विभाजन में कुम्भ्कारों को अन्य पिछड़ा वर्ग के तहत गिना जाता हैं.
आम बोलचाल में प्रयुक्त कुम्हार शब्द संस्कृत के कुम्भकार का तद्भव रूप हैं. जिसका शाब्दिक अर्थ होता है मिट्टी के बर्तन बनाने वाला. दक्षिण मूल की द्रविड़ भाषाओं में भी कुम्भकार शब्द का आशय भांड से लिया जाता हैं. जो हिंदी के कुम्हार शब्द का समानार्थी भी हैं. भांडे का अर्थ होता है बर्तन. भारत के कुछ क्षेत्रों में इन्हें अलग अलग नामों से भी जाना जाता हैं. वैदिक काल में कुम्हार के लिए यजुर्वेद में कुलाल शब्द प्रयुक्त हुआ है अतः आज भी अमृतसर और आस पास के क्षेत्रों में कुम्हार को कलाल या कुलाल के नाम से भी जानते हैं.
कुम्हार को प्रजापति भी कहा जाता हैं. हिन्दू धार्मिक पुराणों में प्रचलित एक कथा के मुताबिक़ सृष्टि का रचयिता ब्रह्माजी द्वारा एक समय अपने सभी पुत्रों को बुलाकर उन्हें गन्ने की एक एक लकड़ी दी. अन्य पुत्रों ने उसी समय गन्ने को खा लिया जबकि कुम्हार बर्तन बनाने में व्यस्त रहा इस कारण मिट्टी के ढेर पर गन्ने की लकड़ी को रख दिया. वायु व जल के सम्पर्क में आने से गन्ना ऊग आया. कुछ दिन बाद परम पिता ब्रह्माजी ने जब अपने पुत्रों से गन्ना माँगा तो उस कर्मकार ने गन्ने के पेड़ को भेट किया, जबकि अन्य ने अपनी असमर्थता जताई. अपने कार्य के प्रति कुम्हार की लग्न व निष्ठां देखकर ब्रह्माजी ने उसे प्रजापति की उपमा दी.
इतिहास में इन किवदन्तियो तथा धार्मिक कथाओं को आधार नहीं माना जाता हैं. अधिकतर विद्वान् इस बात कर एकमत होते है कि हस्तकला में मिट्टी की कलात्मक वस्तुएं निर्मित करने में कुम्हार का कोई सानी नहीं हैं. सम्भवतया लोगों ने उनके कर्म को सम्मान देने के लिए प्रजापति कहकर सम्बोधित किया होगा.
देश भर का कुम्हार समुदाय हिन्दू कुम्हार तथा मुस्लिम कुम्हार इन दो वर्गों में विभक्त हैं. दोनों की ऐतिहासिक पृष्टभूमि एक ही रही हैं. प्राचीन वर्ण व्यवस्था में कुम्हार को शुद्र वर्ग में गिना जाता था. आज के शासकीय वर्गीकरण में इन्हें पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में शामिल किया जाता हैं. गुजराती कुम्हार, राणा कुम्हार, लाद, तेलंगी ये कुछ कुम्हार जाति के समूह अथवा उपजातियाँ हैं.
राजस्थान में कुम्हार जाति के छः उपवर्ग पाए जाते है जो माथेरा, कुमावत, खेतेरी, मारवाडा., तिमरिया, और मालवी हैं. विभिन्न कलात्मक सामग्री यथा घड़े, सुराही, खिलौने बनाने का कार्य कुम्हार करता हैं. जो चाक की मदद से मिट्टी के ढेले को अपने हाथ के हुनर से एक आकर्षक व उपयोगी वस्तु का रूप दे देता हैं.
मृणशिल्पों की दृष्टि से छतीसगढ़ राज्य का बस्तर क्षेत्र देशभर में विख्यात हैं. बस्तर की मुख्य कुम्हार जातियां राणा, नाग, चक्रधारी और पाँड़े हैं. कुम्हार भारतीय ग्रामीण तानेबाने का अहम अंग समझा जाता हैं. हरेक गाँव में एक दो अथवा अधिक कुम्हार के घर होते हैं. नित्य घर के क्रियाकलाप हो अथवा पूजा, अनुष्ठान, विवाह अथवा संस्कार कर्म में कुम्हार की भूमिका निहित होती हैं.
विगत कुछ दशकों में कुम्हार कर्म में आए बदलावों पर गौर करे तो मोटे तौर पर कुम्भकार दो तरह के काम में सलग्न हैं. गाँव में जीवन बिताने वाले खेती के साथ साथ स्थानीय जनों की आवश्यकता के मुताबिक़ बर्तन, भांड आदि बनाते हैं. वही दूसरा तबका शहरी जीवन की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए अधिक अलंकृत, पोलिशयुक्त एवं कलात्मक बर्तन बनाते हैं. शहरों में खिलौने तथा मिट्टी के गमलों की मांग अन्य वस्तुओं के मुकाबले अधिक रहती हैं.
कुम्हार जाति के निर्माण के सम्बन्ध में एक अन्य कथा के अनुसार ब्रह्माजी को अमृत रखने के लिए एक बर्तन की आवश्यकता पड़ी अतः उन्होंने विश्वकर्मा जी से हांडी बनाने को कहा. क्षीर समुद्र के मंथन से निकले अमृत को रखने के लिए कोई उपयुक्त पात्र नहीं मिला, विश्वकर्मा जी कहा मैं बुढा हो चूका हूँ मुझमें यह शक्ति नहीं हैं, फिर भी मैं कोशिश करुगा. और बिना सामान के हांडी भी बनेगी कैसे अतः ब्रह्मा जी ने अपनी जनेऊ उतारकर कुम्हार को दी ताकि वह चाक से बर्तन को काट सके, विष्णु जी ने अपना सुदर्शन चक्र कुम्हार को दिया जिस पर हांडी बनाई गई.
कुम्हार जाति के लोग आज भी अपने कर्म को इतनी सिद्धत से करते है जिसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि जो कुम्हार का लड़का चाक चलाना नहीं जानता, उसका विवाह भी नहीं होता हैं. कहते है जो एक हांडी नहीं बना सकता वह जिन्दगी कैसे चलाएगा.
मिट्टी से बर्तन बनाने के कार्य में न केवल रचनात्मकता होती है बल्कि इसके साथ ही कुम्हार की कड़ी मेहनत भी लगती हैं, वह बर्तन बनाने हेतु उपयुक्त तालाब की मिट्टी को खोदकर बैलगाड़ी से अपने घर ले आता हैं. बरसात के दिनों में मिट्टी की कमी न हो इसलिए वह इसे संग्रह कर रखता हैं. मिट्टी के गारे से चाक की मदद से बर्तन बनाकर कुछ वक्त तक सूखने के लिए छोड़ दिया जाता हैं तत्पश्चात उपलों व लकड़ियों की भट्टी में इनके पकाया जाता हैं, तदोपरान्त ये उपयोग हेतु वस्तुए निर्मित होती हैं.