about siant mother teresa in hindi
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मदर टेरेसा ने कई आश्रम, गरीबों के लिए रसोई, स्कूल, कुष्ठ रोगियों की बस्तियां और अनाथ बच्चों के लिए घर बनवाए। मदर टेरेसा को 1971 में नोबेल शांति पुरस्कार और 1980 में भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न प्रदान किया गया। वर्ष 1988 में ब्रिटेन द्वारा आईर ओफ द ब्रिटिश इम्पायर की उपाधि प्रदान की गयी।
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ऊपर लिखा गया कथन महान समाज सेविका मदर टेरेसा का है, उन्होंने इस कथन के अनुरूप ही अपना पूरी जीवन दूसरों की सेवा की कली होता है। उनके पिता निकोला बोयाजू एक धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे, जो कि ईसा मसीह के घोर अनुयायी थे, वहीं जब वे महज 8 साल की थी, तब उनके सिर से उनके पिता का साया उठ गया।
जिसके बाद उनका पालन-पोषण उनकी मां द्राना बोयाजू ने किया, जो कि एक धर्मपरायण और आदर्श गृहिणी थी, वहीं मदर टेरेसा पर उनकी मां के संस्कार और शिक्षा का गहरा असर पड़ा था।
वहीं पिता की मौत के बाद उनके घर की आर्थिक हालत काफी खराब होती चली गई, जिसकी वजह से उनका बचपन काफी संघर्षपूर्ण बीता।
मदर टेरेसा भी बचपन में अपनी मां और बहन के साथ चर्च में जाकर धार्मिक गीत गाया करती थी, वहीं जब मदर टेरेसा महज 12 साल की थी, तब वे एक धार्मिक यात्रा पर गईं हुईं थी, और तभी उन्होंने येशु के परोपकार और समाज सेवा के वचन को पूरी दुनिया में प्रचार-प्रसार करने का फैसला लिया साथ ही उन्होंने अपना पूरा जीवन गरीबों की सेवा में समर्पित करने का भी मन बना लिया था।
वहीं साल 1928 में जब मदर टेरेसा महज 18 साल की थी तब उन्होंने नन के समुदाय ‘सिस्टर्स ऑफ़ लोरेटो’ में शामिल होने का निर्णय लिया और अपना घर छोड़ दिया। इसके बाद वे आयरलैंड गईं और वहां उन्होंने इंग्लिश सीखी क्योंकि ‘लोरेटो’ की सिस्टर्स अंग्रेजी के माध्यम से ही बच्चों को भारत में पढ़ाती थीं।
वहीं नन बनने के बाद उन्हें सिस्टर मेरी टेरेसा का नाम दिया गया। वहीं इस दौरान उन्होंने एक इंस्टीट्यूट से नन की ट्रेनिंग ली, और फिर अपना पूरे जीवन गरीब और असहाय लोगों की मद्द करने में लगा दिया।
मदर टेरेसा का भारत आगमन – Mother Teresa in India
मदर टेरेसा अपने इंस्टीट्यूट की अन्य नन के साथ साल 1929 में भारत के दार्जलिंग शहर आयी, जहां उन्होंने नन के रुप में अपनी पहली धार्मिक प्रतिज्ञा ली।
वहीं इसके बाद उन्हें कलकत्ता में एक शिक्षिका के तौर पर भेजा गया। कलकत्ता में डबलिन की सिस्टर लोरेंटो ने संत मैरी स्कूल की स्थापना की थी, जहां मदर टेरेसा गरीब और असहाय बच्चों को पढ़ाती थी, दरअसल मदर टेरेसा की हिन्दी और बंगाली दोनों भाषा में अच्छी पकड़ थी, वहीं वे शुरुआत से ही बेहद परिश्रमी थी, इसलिए उन्होंने अपना यह काम भी पूरी ईमानदारी और निष्ठा पूर्वक किया, और वे बच्चों की प्रिय शिक्षिका भी बन गईं थी।
वहीं इसी दौरान उनका ध्यान उनके-आस-पास फैली गरीबी, बीमारी, लाचारी, अशिक्षा और अज्ञानता पर गया, जिसे देखकर वे बेहद दुखी हुईं। आपको बता दें कि यह वह दौर था जब अकाल की वजह से कलकत्ता शहर में बड़ी संख्या में मौते हो रही थीं, और गरीबी के कारण लोगों की हालत बेहद खऱाब हो गई थी, जिसे देखकर मदर टेरेसा ने गरीब, असहाय, बीमार और जरुरतमंदों की सेवा करने का प्रण लिया।
मिशनरी ऑफ चैरिटी की स्थापना – Missionaries of Charity
गरीबों और जरुरतमंदों की मद्द करने के लिए मदर टेरेसा ने पटना के होली फैमिली हॉस्पिटल में नर्सिंग की ट्रेनिंग पूरी की और फिर साल 1948 में कलकत्ता आकर वे गरीबों, असहाय और बुजुर्गों की देखभाल में जुट गईं।
वहीं काफी प्रयास के बाद 7 अक्टूबर 1950 में मदर टेरेसा को समाज के हित में काम करने वाली संस्था मिशनरी ऑफ़ चैरिटी बनाने की इजाजत दे दी गई।
आपको बता दें कि मदर टेरेसा की इस संस्था का मकसद सिर्फ गरीबों, जरुरतमंदों, बीमार, और लाचार लोगों की सहायता कर उनके अंदर जीवन जीने आस जगाना था।
इसके अलावा करुणा की देवी मदर टेरेसा ने ‘निर्मल ह्रदय’ और ‘निर्मला शिशु भवन’ के नाम आश्रम भी खोले, जिसका उद्देश्य गरीब और बीमार लोगों का इलाज करना और अनाथ और बेघर बच्चों की सहायता करना था।
मदर टेरेसा का निधन – Mother Teresa Death History
मदर टेरेसा को अपने जीवन के आखिरी दिनों में तमाम शारीरिक परेशानियां झेलनी पड़ी थी, साल 1983 में जब वे रोम में पॉप जॉन पॉल द्वितीय से मिलने गईं, तब उन्हें पहली बार हार्ट अटैक पड़ा।
इसके बाद एक बार फिर साल 1989 में उन्हें हार्ट अटैक आया, लेकिन बीमारी में भी उन्होंने काम करना नहीं छोड़ा। इसके बाद उनका स्वास्थ्य लगातार खराब होता चला गया और साल 1991 में उन्हें किडनी और हृदय की परेशानी हो गई।