Hindi, asked by AparnaSaw, 12 days ago

अहंकार करना एक अपराध है ’’ इस पर अपने विचार प्रस्तुत करते हुए 250 शब्दो में? ​

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Answered by kirannaik16248
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Answer:

जीवन प्रगति में मनुष्य का अहंकार बहुत बड़ा बाधक है। इसके वशीभूत होकर चलने वाला मनुष्य प्रायः पतन की ओर ही जाता है। श्रेय पथ की यात्रा उसके लिये दुरूह एवं दुर्गम हो जाती है। अहंकार से भेद बुद्धि उत्पन्न होती है जो मनुष्य को मनुष्य से ही दूर नहीं कर देती, अपितु अपने मूलस्रोत परमात्मा से भी भिन्न कर देती है।

Answered by kumarianjali6676181
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दर्पण जल और र्स्फाटक में प्रकाशित सूर्य का प्रतिबिम्ब सभी ने देखा है। इस सत्य से भी कोई अनभिज्ञ नहीं है कि सूर्य के प्रतिबिम्ब का अस्तित्व सूर्य का कारण ही दिखलाई देता है। वस्तुतः प्रतिबिम्ब का अपना कोई अस्तित्व नहीं है अब ऐसी दशा में प्रतिबिम्ब अपने को सूर्य मान बैठे तो यह उसकी भूल ही होगी।

जीवात्मा का भी अपना अस्तित्व कुछ नहीं है। वह भी शरीर रूपी दर्पण में परमात्मा का प्रतिबिम्ब मात्र है। यदि मनुष्य स्वतः अपने अस्तित्व को अपनी विशेषता मान बैठे तो यह उसकी भी मूल होगी। किन्तु खेद है कि अज्ञान के कारण मनुष्य यह भूल करता है। उसे समझना तो यह चाहिए कि उसके अंतःकरण में जो परमात्म नाम का तत्व विराजमान है, उसी की विद्यमानता शरीर में चेतना उत्पन्न करती है, जिसके बल पर मनुष्य सारे विचार और व्यवहार करता है। परमात्म जब अपनी इस चेतना को अंतर्हित कर लेता है

तब यह चलता फिरता चेतन शरीर जड़ होकर मिट्टी बन जाता है। किन्तु मनुष्य सोचता यह है कि उसका शरीर अपना है, उसको चेतना अपनी है, अपनी सत्ता से ही वह सारे कार्य व्यवहार करता है। यह मनुष्य का मिथ्या अहंकार है।

जीवन प्रगति में मनुष्य का अहंकार बहुत बड़ा बाधक है। इसके वशीभूत होकर चलने वाला मनुष्य प्रायः पतन की ओर ही जाता है। श्रेय पथ की यात्रा उसके लिये दुरूह एवं दुर्गम हो जाती है। अहंकार से भेद बुद्धि उत्पन्न होती है जो मनुष्य को मनुष्य से ही दूर नहीं कर देती, अपितु अपने मूलस्रोत परमात्मा से भी भिन्न कर देती है। परमात्मा से भिन्न होते ही मनुष्य में पाप प्रवृत्तियाँ प्रबल हो उठती है। वह न करने योग्य कार्य करने लगता है। अहंकार के दोष से मति विपरीत हो जाती है और मनुष्य को गलत कार्यों में ही सही का मान होने लगता है।

रावण की विद्वता संसार प्रसिद्ध है। उसके बल की कोई सीमा नहीं थी। ऐसा नहीं सोचा जा सकता कि उसमें इतनी भी बुद्धि नहीं थी कि वह अपना हित अहित न समझ पाता। वह एक महान बुद्धिमान तथा विचारक व्यक्ति था। उसने जो कुछ सोचा और किया, वह सब अपने हित के लिए ही किया। किन्तु उसका परिणाम उसके सर्वनाम के रूप में सामने आया। इसका कारण क्या था? इसका एकमात्र कारण उसका अहंकार ही था। अहंकार के दोष ने उसकी बुद्धि उल्टी कर दी। इसी कारण उसे अहित से हित दिखलाई देने लगा। इसी दोष के कारण उसके सोचने समझने की दिशा गलत हो गई थी और वह उसी विपरीत विचार धारा से प्रेरित होकर विनाश की ओर बढ़ता चला गया।

ऐसा कौन सा अकल्याण है, जो अहंकार से उत्पन्न न होता हो। काम, क्रोध, लोभ आदि विकारों का जनक अहंकार ही को तो माना गया है। बात भी गलत नहीं है, अहंकारी को अपने सिवाय और किसी का ध्यान नहीं रहता, उसकी कामनायें अपनी सीमा से परे-परे ही चला करती है। संसार का सारा भोग विलास और धन वैभव वह केवल अपने लिए ही चाहता है। अहंकार की असुर वृत्ति के कारण वह बड़ा विलासी और विषयी बना रहता है। उसकी विषय-वासनाओं की तृष्णा कभी पूरी नहीं हो

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