ahinsa ka. mahatva anuched in hindi
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अहिंसा का सामान्य अर्थ है 'हिंसा न करना'। इसका व्यापक अर्थ है - किसी भी प्राणी को तन, मन, कर्म, वचन और वाणी से कोई नुकसान न पहुँचाना। मन में किसी का अहित न सोचना, किसी को कटुवाणी आदि के द्वार भी नुकसान न देना तथा कर्म से भी किसी भी अवस्था में, किसी भी प्राणी कि हिंसा न करना, यह अहिंसा है। जैन धर्म एवं हिन्दू धर्म में अहिंसा का बहुत महत्त्व है। जैन धर्म के मूलमंत्र में ही अहिंसा परमो धर्म: (अहिंसा परम (सबसे बड़ा) धर्म कहा गया है। आधुनिक काल में महात्मा गांधी ने भारत की आजादी के लिये जो आन्दोलन चलाया वह काफी सीमा तक अहिंसात्मक था।
हिंसा मात्र से पाप कर्म का बंधन होता है। इस दृष्टि से हिंसा का कोई प्रकार नहीं होता। किंतु हिंसा के कारण अनेक होते हैं, इसलिए कारण की दृष्टि से उसके प्रकार भी अनेक हो जाते हैं। कोई जानबूझकर हिंसा करता है, तो कोई अनजान में भी हिंसा कर डालता है। कोई प्रयोगजनवश करता है, तो काई बिना प्रयोजन भी।
सूत्रकृतांग में हिंसा के पाँच समाधान बतलाए गए हैं : (1) अर्थदंड, (2) अनर्थदंड, (3) हिंसादंड, (4) अकस्माद्दंड, (5) दृष्टिविपर्यासदंड। अहिंसा आत्मा की पूर्ण विशुद्ध दशा है। वह एक ओर अखंड है, किंतु मोह के द्वारा वह ढकी रहती है। मोह का जितना ही नाश होता है उतना ही उसका विकास। इस मोहविलय के तारतम्य पर उसके दो रूप निश्चित किए गए हैं : (1) अहिंसा महाव्रत, (2) अहिंसा अणुव्रत। इनमें स्वरूपभेद नहीं, मात्रा (परिमाण) का भेद है।
मुनि की अहिंसा पूर्ण है, इस दशा में श्रावक की अहिंसा अपूर्ण। मुनि की तरह श्रावक सब प्रकार की हिंसा से मुक्त नहीं रह सकता। मुनि की अपेक्षा श्रावक की अहिंसा का परिमाण बहुत कम है। उदाहरणत: मुनि की अहिंसा 20 बिस्वा है तो श्रावक की अहिंसा सवा बिस्वा है। (पूर्ण अहिंसा के अंध बीस हैं, उनमें से श्रावक की अहिंसा का सवा अंश है।) इसका कारण यह है कि श्रावक 19 जीवों की हिंसा को छोड़ सकता है, वादर स्थावर जीवों की हिंसा को नहीं। इससे उसकी अहिंसा का परिमाण आधा रह जाता है-दस बिस्वा रह जाता है। इसमें भी श्रावक उन्नीस जीवों की हिंसा का संकल्पपूर्वक त्याग करता है, आरंभजा हिंसा का नहीं। अत: उसका परिमाण उसमें भी आधा अर्थात् पाँच बिस्वा रह जाता है। संकल्पपूर्वक हिंसा भी उन्हीं उन्नीस जीवों की त्यागी जाती है जो निरपराध हैं। सापराध न्नस जीवों की हिंसा से श्रावक मुक्त नहीं हो सकता। इससे वह अहिंसा ढाई बिस्वा रह जाती है। निरपराध उन्नीस जीवों की भी निरपेक्ष हिंसा को श्रावक त्यागता है। सापेक्ष हिंसा तो उससे हो जाती है। इस प्रकार श्रावक (धर्मोपासक या व्रती गृहस्थ) की अंहिसा का परिमाण सवा बिस्वा रह जाता है। इस प्राचीन गाथा में इसे संक्षेप में इस प्रकार कहा है :
जीवा सुहुमाथूला, संकप्पा, आरम्भाभवे दुविहा।
सावराह निरवराहा, सविक्खा चैव निरविक्खा।।
(1) सूक्ष्म जीवहिंसा, (2) स्थूल जीवहिंसा, (3) संकल्प हिंसा, (4) आरंभ हिंसा, (5) सापराध हिंसा, (6) निरपराध हिंसा, (7) सापेक्ष हिंसा, (8) निरपेक्ष हिंसा। हिंसा के ये आठ प्रकार हैं। श्रावक इनमें से चार प्रकार की, (2, 3, 6, 8) हिंसा का त्याग करता है। अत: श्रावक की अहिंसा अपूर्ण है।
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अहिंसा का सामान्य अर्थ है 'हिंसा न करना'। इसका व्यापक अर्थ है - किसी भी प्राणी को तन, मन, कर्म, वचन और वाणी से कोई नुकसान न पहुँचाना। मन में किसी का अहित न सोचना, किसी को कटुवाणी आदि के द्वार भी नुकसान न देना तथा कर्म से भी किसी भी अवस्था में, किसी भी प्राणी कि हिंसा न करना, यह अहिंसा है। जैन धर्म एवं हिन्दू धर्म में अहिंसा का बहुत महत्त्व है। जैन धर्म के मूलमंत्र में ही अहिंसा परमो धर्म: (अहिंसा परम (सबसे बड़ा) धर्म कहा गया है। आधुनिक काल में महात्मा गांधी ने भारत की आजादी के लिये जो आन्दोलन चलाया वह काफी सीमा तक अहिंसात्मक था।
हिंसा मात्र से पाप कर्म का बंधन होता है। इस दृष्टि से हिंसा का कोई प्रकार नहीं होता। किंतु हिंसा के कारण अनेक होते हैं, इसलिए कारण की दृष्टि से उसके प्रकार भी अनेक हो जाते हैं। कोई जानबूझकर हिंसा करता है, तो कोई अनजान में भी हिंसा कर डालता है। कोई प्रयोगजनवश करता है, तो काई बिना प्रयोजन भी।
सूत्रकृतांग में हिंसा के पाँच समाधान बतलाए गए हैं : (1) अर्थदंड, (2) अनर्थदंड, (3) हिंसादंड, (4) अकस्माद्दंड, (5) दृष्टिविपर्यासदंड। अहिंसा आत्मा की पूर्ण विशुद्ध दशा है। वह एक ओर अखंड है, किंतु मोह के द्वारा वह ढकी रहती है। मोह का जितना ही नाश होता है उतना ही उसका विकास। इस मोहविलय के तारतम्य पर उसके दो रूप निश्चित किए गए हैं : (1) अहिंसा महाव्रत, (2) अहिंसा अणुव्रत। इनमें स्वरूपभेद नहीं, मात्रा (परिमाण) का भेद है।
मुनि की अहिंसा पूर्ण है, इस दशा में श्रावक की अहिंसा अपूर्ण। मुनि की तरह श्रावक सब प्रकार की हिंसा से मुक्त नहीं रह सकता। मुनि की अपेक्षा श्रावक की अहिंसा का परिमाण बहुत कम है। उदाहरणत: मुनि की अहिंसा 20 बिस्वा है तो श्रावक की अहिंसा सवा बिस्वा है। (पूर्ण अहिंसा के अंध बीस हैं, उनमें से श्रावक की अहिंसा का सवा अंश है।) इसका कारण यह है कि श्रावक 19 जीवों की हिंसा को छोड़ सकता है, वादर स्थावर जीवों की हिंसा को नहीं। इससे उसकी अहिंसा का परिमाण आधा रह जाता है-दस बिस्वा रह जाता है। इसमें भी श्रावक उन्नीस जीवों की हिंसा का संकल्पपूर्वक त्याग करता है, आरंभजा हिंसा का नहीं। अत: उसका परिमाण उसमें भी आधा अर्थात् पाँच बिस्वा रह जाता है। संकल्पपूर्वक हिंसा भी उन्हीं उन्नीस जीवों की त्यागी जाती है जो निरपराध हैं। सापराध न्नस जीवों की हिंसा से श्रावक मुक्त नहीं हो सकता। इससे वह अहिंसा ढाई बिस्वा रह जाती है। निरपराध उन्नीस जीवों की भी निरपेक्ष हिंसा को श्रावक त्यागता है। सापेक्ष हिंसा तो उससे हो जाती है। इस प्रकार श्रावक (धर्मोपासक या व्रती गृहस्थ) की अंहिसा का परिमाण सवा बिस्वा रह जाता है। इस प्राचीन गाथा में इसे संक्षेप में इस प्रकार कहा है :
जीवा सुहुमाथूला, संकप्पा, आरम्भाभवे दुविहा।
सावराह निरवराहा, सविक्खा चैव निरविक्खा।।
(1) सूक्ष्म जीवहिंसा, (2) स्थूल जीवहिंसा, (3) संकल्प हिंसा, (4) आरंभ हिंसा, (5) सापराध हिंसा, (6) निरपराध हिंसा, (7) सापेक्ष हिंसा, (8) निरपेक्ष हिंसा। हिंसा के ये आठ प्रकार हैं। श्रावक इनमें से चार प्रकार की, (2, 3, 6, 8) हिंसा का त्याग करता है। अत: श्रावक की अहिंसा अपूर्ण है।
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