Hindi, asked by aneetasharma008, 6 months ago

Akashdeep kahani ki tatvik Samiksha
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Answered by sangamlamatamang123
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Answered by dhruvdhende
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Answer:

बंदी!''

''क्या है? सोने दो।''

''मुक्त होना चाहते हो?''

''अभी नहीं, निद्रा खुलने पर, चुप रहो।''

''फिर अवसर न मिलेगा।''

''बडा शीत है, कहीं से एक कंबल डालकर कोई शीत से मुक्त करता।''

''आंधी की संभावना है। यही एक अवसर है। आज मेरे बंधन शिथिल हैं।''

''तो क्या तुम भी बंदी हो?''

''हां, धीरे बोलो, इस नाव पर केवल दस नाविक और प्रहरी है।''

''शस्त्र मिलेगा?''

''मिल जाएगा। पोत से संबद्ध रज्जु काट सकोगे?''

''हां।''

समुद्र में हिलोरें उठने लगीं। दोनों बंदी आपस में टकराने लगे। पहले बंदी ने अपने को स्वतंत्र कर लिया। दूसरे का बंधन खोलने का प्रयत्न करने लगा। लहरों के धक्के एक-दूसरे को स्पर्श से पुलकित कर रहे थे। मुक्ति की आशा-स्नेह का असंभावित आलिंगन। दोनों ही अंधकार में मुक्त हो गए। दूसरे बंदी ने हर्षातिरेक से उसको गले से लगा लिया। सहसा उस बंदी ने कहा-''यह क्या? तुम स्त्री हो?''

''क्या स्त्री होना कोई पाप है?'' - अपने को अलग करते हुए स्त्री ने कहा।

''शस्त्र कहां है - तुम्हारा नाम?''

''चंपा।''

तारक-खचित नील अंबर और समुद्र के अवकाश में पवन ऊधम मचा रहा था। अंधकार से मिलकर पवन दुष्ट हो रहा था। समुद्र में आंदोलन था। नौका लहरों में विकल थी। स्त्री सतर्कता से लुढक़ने लगी। एक मतवाले नाविक के शरीर से टकराती हुई सावधानी से उसका कृपाण निकालकर, फिर लुढक़ते हुए, बन्दी के समीप पहुंच गई। सहसा पोत से पथ-प्रदर्शक ने चिल्लाकर कहा - ''आंधी!''

आपत्ति-सूचक तूर्य बजने लगा। सब सावधान होने लगे। बंदी युवक उसी तरह पडा रहा। किसी ने रस्सी पकडी, क़ोई पाल खोल रहा था। पर युवक बंदी ढुलककर उस रज्जु के पास पहुंचा, जो पोत से संलग्न थी। तारे ढंक गए। तरंगे उद्वेलित हुई, समुद्र गरजने लगा। भीषण आंधी, पिशाचिनी के समान नाव को अपने हाथों में लेकर कंदुक-क्रीडा और अट्टहास करने लगी।

एक झटके के साथ ही नाव स्वतंत्र थी। उस संकट में भी दोनों बंदी खिलखिला कर हंस पडे। आंधी के हाहाकार में उसे कोई न सुन सका।

अनंत जलनिधि में उषा का मधुर आलोक फूट उठा। सुनहली किरणों और लहरों की कोमल सृष्टि मुस्कराने लगी। सागर शांत था। नाविकों ने देखा, पोत का पता नहीं। बंदी मुक्त हैं।

नायक ने कहा - ''बुधगुप्त! तुमको मुक्त किसने किया?''

कृपाण दिखाकर बुधगुप्त ने कहा - ''इसने।''

नायक ने कहा - ''तो तुम्हें फिर बंदी बनाऊँगा।''

''किसके लिए? पोताध्यक्ष मणिभद्र अतल जल में होगा - नायक! अब इस नौका का स्वामी मैं हूं।''

''तुम? जलदस्यु बुधगुप्त? कदापि नहीं।'' - चौंककर नायक ने कहा और अपना कृपाण टटोलने लगा! चंपा ने इसके पहले उस पर अधिकार कर लिया था। वह क्रोध से उछल पडा।

''तो तुम द्वंद्वयुद्ध के लिए प्रस्तुत हो जाओ; जो विजयी होगा, वह स्वामी होगा।'' - इतना कहकर बुधगुप्त ने कृपाण देने का संकेत किया। चंपा ने कृपाण नायक के हाथ में दे दिया।

भीषण घात-प्रतिघात आरंभ हुआ। दोनों कुशल, दोनों त्वरित गतिवाले थे। बडी निपुणता से बुधगुप्त ने अपना कृपाण दाँतों से पकड़कर अपने दोनों हाथ स्वतंत्र कर लिए। चंपा भय और विस्मय से देखने लगी। नाविक प्रसन्न हो गए। परंतु बुधगुप्त ने लाघव से नायक का कृपाणवाला हाथ पकड़ लिया और विकट हुंकार से दूसरा हाथ कटि में डाल, उसे गिरा दिया। दूसरे ही क्षण प्रभात की किरणों में बुधगुप्त का विजयी कृपाण उसके हाथों में चमक उठा। नायक की कातर आँखें प्राण-भिक्षा माँगने लगीं।

बुधगुप्त ने कहा - ''बोलो, अब स्वीकार है कि नहीं?''

''मैं अनुचर हूं, वरूणदेव की शपथ। मैं विश्वासघात नहीं करूँगा।'' बुधगुप्त ने उसे छोड़ दिया।

चंपा ने युवक जलदस्यु के समीप आकर उसके क्षतों को अपनी स्निग्ध दृष्टि और कोमल करों से वेदना-विहीन कर दिया। बुधगुप्त के सुगठित शरीर पर रक्त-बिंदु विजय-तिलक कर रहे थे।

विश्राम लेकर बुधगुप्त ने पूछा,''हम लोग कहाँ होंगे?''

''बालीद्वीप सें बहुत दूर, संभवतः एक नवीन द्वीप के पास, जिसमें अभी हम लोगों का बहुत कम आना-जाना होता है। सिंहल के वणिकों का वहाँ प्राधान्य है।''

''कितने दिनों में हम लोग वहाँ पहुँचेंगे?''

''अनुकूल पवन मिलने पर दो दिन में। तब तक के लिए खाद्य का अभाव न होगा।''

सहसा नायक ने नाविकों को डाँड़ लगाने की आज्ञा दी, और स्वयं पतवार पकड़क़र बैठ गया। बुधगुप्त के पूछने पर उसने कहा - ''यहाँ एक जलमग्न शैलखंड है। सावधान न रहने से नाव टकराने का भय है।''

''तुम्हें इन लोगों ने बंदी क्यों बनाया?''

''वाणिक् मणिभद्र की पाप-वासना ने।''

''तुम्हारा घर कहाँ है?''

''जाह्नवी के तट पर। चंपा-नगरी की एक क्षत्रिय बालिका हूँ। पिता इसी मणिभद्र के यहाँ प्रहरी का काम करते थे। माता का देहावसान हो जाने पर मैं भी पिता के साथ नाव पर ही रहने लगी। आठ बरस से समुद्र ही मेरा घर है। तुम्हारे आक्रमण के समय मेरे पिता ने ही सात दस्युओं को मारकर जल-समाधि ली। एक मास हुआ, मैं इस नील नभ के नीचे, नील जलनिधि के ऊपर, एक भयानक अनंतता में निस्सहाय हूँ -अनाथ हूँ। मणिभद्र ने मुझसे एक दिन घृणित प्रस्ताव किया। मैंने उसे गालियाँ सुनाई। उसी दिन से बंदी बना दी गई।'' - चंपा रोष से जल रही थी।

''मैं भी ताम्रलिप्ति का एक क्षत्रिय हूँ, चंपा! परंतु दुर्भाग्य से जलदस्यु बनकर जीवन बिताता हूँ। अब तुम क्या करोगी?''

''मैं अपने अदृष्ट को अनिर्दिष्ट ही रहने दूंगी। वह जहाँ ले जाए।'' - चंपा की आँखें निस्सीम प्रदेश में निरूद्देश्य थीं। किसी आकांक्षा के लाल डोरे न थे। धवल अपांगों में बालकों के सदृश विश्वास था। हत्या-व्यवसायी दस्यु भी उसे देखकर काँप गया। उसके मन में एक संभ्रमपूर्ण श्रध्दा यौवन की पहली लहरों को जगाने लगी। समुद्र-वृक्ष पर विलंबमयी राग-रंजित संध्या थिरकने लगी। चंपा के असंयत कुंतल उसकी पीठ पर बिखरे थे। दुर्दान्त दस्यु ने देखा, अपनी महिमा में अलौकिक एक तरूण बालिका! वह विस्मय से अपने हृदय को टटोलने लगा। उसे एक नई वस्तु का पता चला। वह थी - कोमलता!

उसी समय नायक ने कहा - ''हम लोग द्वीप के पास पहुँच गए।''

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