Hindi, asked by pranitalokhande359, 2 months ago

२०) अखबार में छपे विज्ञापनों की उपयोगिता के बारे में अपने
विवार लिखिा।​

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Answered by chetanajha8928
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Answer:

स्मरण करें गुलाम भारत के भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों का, पंडित मदन मोहन जैसे समाज निर्माताओं का या महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू जैसे अनेकानेक राजनीतिक नेताओं का। इन सब में आप एक समानता पाएंगे। ये सभी किसी न किसी समाचार पत्र-पत्रिकाओं में संपादन या लेखन से जुड़े थे। आजादी के ये महान नायक कलम के सिपाही होने की स्मरणीय भूमिका में भी रहे। ऐसे अनगिनत व अनाम लिखने वाले क्रांतिवीरों व उन जैसों के लिखे लेखों को जो छापते थे, उनको भी साहसी होना पड़ता था और कभी-कभी जो ऐसे लेखन की पत्र-पत्रिकाएं वितरित करते थे उनको भी जोखिम झेलते हुए वितरण करना होता था। इनके लिखों को पढ़ने वाले व सहेजने वाले भी सरकार बहादुर राजा-महाराजाओं तथा उनके भेदियों की नजर व निगरानी में होते थे।

गुलामी के दिनों में खासकर देशी रियासतों में तो बाहर से आने वाली पत्र-पत्रिकाओं को रियासत में लाने व पहुंचाने पर भी पाबंदी थी। शासकों को डर तख्तापलट वाली बगावत का ही नहीं होता था। डर आधुनिक विचारों का रियासतों में पहुंच का भी होता था। सामाजिक बगावत का भी अंदेशा इन्हें सालता था। लेखनियों से निकले विचारों से बंधुआ मजदूरों, कर्जदारों महिलाओं के अधिकारों की स्वतंत्रता के साथ उन्हें अपनी निरंकुशता व संपन्नता पर आने वाली चुनौती का डर लगता था। यह सब एक तरह से कलम के सिपाहियों व सिपाहियों की कलम का डर होता था। तोपों का सामना करने के लिए अखबार ताकत देते थे...!

कलम के लिखे से जनता की आवाज कुचलने वाले बहुत डरते हैं। अपने देश में भी जिस रात अचानक आपातकाल लगा था उस रात ही प्रेसों पर पहरा व सेंसर भी लग गया था। अखबारों का छपना व बंटना खौफ के साये में हो रहा था। पहले की छपी पत्रिकाओं के उन अंश पर काली स्याही फिरवाई गई, जिनसे आपातकाल के विरुद्ध लोगों के खड़े होने का डर था। मुझे याद है कि एक प्रसिद्ध कहानी पत्रिका का जो अंक तब तक तैयार हो चुका था, जब अगले दिन स्टैंडों पर आया तो कहानियों में पंक्तियों को जगह-जगह काला कर दिया गया था। अब कई वर्षों से ये पत्रिका बंद हो गई है। इन्हीं परिप्रेक्ष्य में आज पत्रकार जगत के बीच भी आत्मावलोकन की जरूरत है, क्योंकि आजादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सामने व लिखने वालों, समाचार भेजने वालों की साख पर भी बुरी नजर है।

बिकाऊ और बिके के लांछन भी कुछ के कारण ईमानदारों को भी बिना किसी प्रमाण के सहने पड़ रहे हैं। निःसंदेह स्थितियां कभी-कभी ऐसी भी आ जाती हैं कि समाचार पत्रों में विज्ञापनों की भीड़ में समाचार ढूंढने पड़ते हैं। ऐसे में समाचार भेजने वाले संवाददाताओं को अपने भेजे समाचारों को भी शायद ढूंढना पड़ता है या लगवाना पड़ता है।

Answered by kaurashpreet52
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Explanation:

स्मरण करें गुलाम भारत के भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों का, पंडित मदन मोहन जैसे समाज निर्माताओं का या महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू जैसे अनेकानेक राजनीतिक नेताओं का। इन सब में आप एक समानता पाएंगे। ये सभी किसी न किसी समाचार पत्र-पत्रिकाओं में संपादन या लेखन से जुड़े थे। आजादी के ये महान नायक कलम के सिपाही होने की स्मरणीय भूमिका में भी रहे। ऐसे अनगिनत व अनाम लिखने वाले क्रांतिवीरों व उन जैसों के लिखे लेखों को जो छापते थे, उनको भी साहसी होना पड़ता था और कभी-कभी जो ऐसे लेखन की पत्र-पत्रिकाएं वितरित करते थे उनको भी जोखिम झेलते हुए वितरण करना होता था। इनके लिखों को पढ़ने वाले व सहेजने वाले भी सरकार बहादुर राजा-महाराजाओं तथा उनके भेदियों की नजर व निगरानी में होते थे।

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