अनुभवों के आधार पर विश
Analyse the model of cognitive information processing theory
experiences scattered throughout your daily life
व्यक्तित्व के विकास से आप क्या समझते हैं। कॉत्त रोजर के द्वारा प्रतिपादित च की जा
अपने जीवन के अनुभव के आधार पर स्पष्ट करें। बताएं की एक बच्चे के सामनेट
लिए आप क्या कदम उठाएंगे?
What do you understand by the personality development plante
'self as propounded by Call Roger based on the experiences of your item
would you take for healthy personality development of a child?
Answers
Answer:
स्व’ का सम्प्रत्यय
बालक स्वयं के बारे में जो सोचता है तथा अपने बारे में जो अवधारणा विकसित करता है, उसे ‘स्व’ की अवधारणा कहते है| यह दो रूपों में हो सकता है, ‘वास्तविक स्व’ एवं ;आदर्शत्मक स्व’ ‘वास्तविक स्व’ का तात्पर्य है बच्चा अपने बारे में क्या सोचता है या प्रत्यक्षीकृत करता है, जैसे वह कौन है? उसमें क्या-क्या विशेषताएं हैं? आदि| ‘आदर्शात्मक स्व’ का आशय वह कैसा होना चाहता है’ तथा ‘आगे चलकर कैसा बनना चाहता है, इस प्रकार ‘स्व’ के दोनों रूपों में से प्रत्येक का सम्बन्ध शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक पहलू से होता है| शारीरिक दृष्टिकोण में शारीरिक अनुभव, यौन एवं शारीरिक क्षमता तथा मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण में बुद्धि, कौशल एवं अन्य लोगों के साथ मानसिक क्षमताओं का प्रदर्शन आदि से स्व सम्बन्धित होता है|
शीलगुण
व्यक्तित्व की संरचना अनेक शीलगुणों से मिलकर बनी होती है| यद्यपि इनका विकास अधिगम एवं अनुभूतियों पर निर्मर होता है| शीलगुण से तात्पर्य व्यवहार की विशेषता या समायोजन के प्रतिमान से है| जैसे संवेगात्मक स्थिरता, आक्रामकता, दयालुता, सहिष्णुता, विश्वसनीय आदि गुण विशिष्ट होते है, कुछ समान होते है तथा एक दूसरे से सम्बन्धित होते होते है| शीलगुण संलक्षण निर्मित होता है| जैसे शांत, एकान्तप्रिय, संकोची एवं दब्बू होने पर व्यक्ति को अन्तर्मुखी कहा जाता है| इसी प्रकार अनेक संलक्षणों की रचना हो सकती है| किसी व्यक्ति में जिन गुणों में प्रभुत्व एवं स्थायित्व की स्थिति पायी जाती है, उन्हें ही व्यक्तित्व का शीलगुण समझना चाहिए| शीलगुणों में भिन्नता के परिणामस्वरूप हम बालकों के व्यक्तित्व को भिन्न-भिन्न रूपों में प्रत्यक्षित करते हैं| इस प्रकार सभी बालकों के व्यवहार में अलग-अलग शीलगुणों का स्थायित्व प्रदर्शित होता है|
व्यक्तित्व संरूपों के स्थायी संगठन में ‘स्व’ की भूमिका प्रमुख होती है| यदि ‘स्व’ की वस्तुस्थिति में परिवर्तन होता है तो प्रतिमानों का स्वरुप भी परिवर्तित होता है| यदि स्वयं के बारे में बच्चे द्वन्द्व का अनुभव करते हैं तो संरूप के संगठन में स्थायित्व नहीं आ पाता|
जैसे: माता-पिता बच्चे को अच्छा कहते हैं परन्तु मित्रमंडली अस्वीकार करती है| इस प्रकार ‘वास्तविक स्व’ एवं आदर्शात्मक स्व’ में अधिक वसंगति होती है| कैटेल एवं ड्रिगल (1974) के अनुसार यदि बालक स्वयं को सुयोग्य समझता है तो उसका समायोजन यथोचित ढंग से होता है परन्तु उसके मन में निषेधात्मक भावनाएं उत्पन्न होने उसमें व्यक्तिगत तथा सामाजिक समायोजन की समस्याएँ उत्पन्न होने लगती हैं|