CBSE BOARD X, asked by annasfancydosa, 4 months ago

अनुच्छेद लेखन- कोरोना के काल में घर - बाहर की जिम्मेदारी निभाती एक काम काजी नारी
का एक दिन (80 से 100 शब्द)​

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Answered by riyakaramchandani05
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युद्ध और प्राकृतिक आपदाओं की हालत में महिलाएं और बच्चे ही सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं. दुनिया भर में महामारी का रूप लेने वाला कोरोना वायरस भी इसका अपवाद नहीं है. भारत में लंबे लॉकडाउन की वजह से महिलाओं पर दबाव है.यह बात अलग है इसकी चपेट में आने वालों में महिलाओं के मुकाबले पुरुषों की तादाद ज्यादा है. लेकिन इस बीमारी के महामारी में बदलने से भारतीय परिवारों में अगर कोई सबसे ज्यादा प्रभावित है तो वह महिलाएं ही हैं. 21 दिनों के लॉकडाउन के दौरान पति व बच्चों के चौबीसों घंटे घर पर रहने की वजह से उन पर कामकाज का बोझ पहले के मुकाबले बढ़ गया है. इसके साथ ही घरेलू नौकरानियों के छुट्टी पर जाने की वजह से समस्या और गंभीर हो गई है. अब उनको कामवाली के तमाम काम भी संभालने पड़ते हैं. नौकरीपेशा महिलाओं की मुश्किलें भी कम नहीं हैं. अब उनको एक ओर घर से काम करना पड़ रहा है और दूसरी ओर घर का भी काम करना पड़ रहा है. कई महिला अधिकार संगठनों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिख कर शहरी और ग्रामीण महिलाओं के बड़े समूह को भी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के दायरे में शामिल करने का अनुरोध किया है.21 दिनों के देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान जहां बच्चों को स्कूल से छुट्टी मिल गई है और कई नौकरीपेशा लोगों को दफ्तर नहीं जाने और घर से काम नहीं करने का मौका मिल गया है वही लाखों की तादाद में नौकरीपेशा महिलाओं की समस्याएं दोगुनी हो गई हैं. अब उनको घर से काम करने के साथ ही घर का भी सारा काम संभालना पड़ रहा है. कोरोना वायरस का आतंक बढ़ने के बाद महानगरों और शहरों की तमाम हाउसिंग सोसायटियों और कालोनियों में घरेलू काम करने वाली नौकरानियों के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई थी. कइयों ने डर के मारे खुद ही आने से मना कर दिया. इसकी वजह से महिलाओं को अब झाडू-पोंछा से लेकर कपड़े धोने तक के तमाम काम भी करने पड़ रहे हैं. आईटी कंपनी में नौकरी करने वाली सुनीता सेन कहती हैं, "यह बेहद मुश्किल दौर है. घर से दफ्तर का काम करना पड़ता है. उसके बाद पति और दो बच्चों को समय पर खाना-पीना देना और हजार दूसरे काम. लगता है पागल हो जाऊंगी.” सुनीता इस मामले में अकेली नहीं हैं. देश की लाखों महिलाएं उनकी जैसी हालत से जूझ रही हैं. कामवाली के बिना खान पकाना, साफ-सफाई और बच्चों की देख-रेख उनके लिए टेढ़ी खीर साबित हो रही है. यही वजह है कि ज्यादातर महिलाओं ने काम पर नहीं आने के बावजूद कामवालियों को वेतन देने का फैसला किया है.खासकर मध्यवर्गीय समाज में पितृसत्तात्मक मानसिकता हावी होने की वजह से माना जाता रहा है कि घर की साफ-सफाई, चूल्हा-चौका, बच्चों की देख-रेख और कपड़े धोने का काम महिलाओं का है, पुरुषों का नहीं. हालांकि अब कामकाजी दंपतियों के मामले में यह सोच बदल रही है. लेकिन अब भी ज्यादातर परिवारों में यही मानसिकता काम करती है. नतीजतन इस लंबे लॉकडाउन में ज्यादातर महिलाएं कामकाज के बोझ तले पिसने पर मजबूर हैं. समाज विज्ञान के प्रोफेसर रहे सुविनय सेनगुप्ता कहते हैं, "लॉकडाउन का एक लैंगिक पहलू भी है. लेकिन अब तक इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया है. ज्यादातर घरों में महिलाओं और पुरुषों के बीच कामकाज का बंटवारा समान नहीं है. पति-पत्नी दोनों के घर से काम करने की स्थिति में भी पत्नी को अपेक्षाकृत ज्यादा बोझ उठाना पड़ता है.” वह कहते हैं कि जो महिलाएं नौकरीपेशा नहीं हैं, उन पर भी दबाव दोगुना हो गया है. इसकी वजह है चौबीसों घंटे घर में रहने वाले पति और बच्चों की तीमारदारी.महिला कार्यकर्ता सुचित्रा कर्मकार कहती हैं, "युद्ध या दैवीय आपदाओं में महिलाओं को ही सबसे ज्यादा दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. कोरोना के कारण जारी यह लंबा लॉकडाउन ऐसी तमाम आपदाओं पर भारी साबित हो रहा है. गांव, शहर, गृहिणी या कामकाजी, कोई भी महिला इससे सुरक्षित नहीं है. मौजूदा हालात में सरकार को इस आधी आबादी की सेहत और सुरक्षा पर ध्यान देना चाहिए.”

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