अनुसूचित जातिय क्या है ?
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आज हमारे समाज में हर तरफ आरक्षण को केवल आर्थिक उन्नति के नज़रिये से देखा जा रहा है. जबकि भारतीय संविधान में आरक्षण का उद्देश्य समाज में हर वर्ग को बराबरी का प्रतिनिधित्व देने के लिए किया गया था परंतु समझने वाली बात ये है की आज़ादी के 70 साल बाद भी क्या सभी लोग सभी वर्गों को अपने बराबर समझते हैं? शायद इसका जवाब हर भारतीय बुद्धिजीवी जानता है. यह भी समझना होगा की आरक्षण ऐसी कौन सी विधि है? जिससे हर इंसान आर्थिक तरक्की प्राप्त कर लेता है. आज राजनीतिक लाभ लेने के लिए कोई इसकी समीक्षा करना चाहता है और कोई समीक्षा का विरोध कर अपना वोट बैंक बढ़ाना चाहता है इसपर पूरी जानकारी रखना सभी लोगों के लिए आवश्यक है.
सन् 1931 में पहली बार तत्कालिक जनगणना आयुक्त (मि. जेएच हटन) ने संपूर्ण भारत के अस्पृश्य जातियों की जनगणना की और बताया कि भारत में 1108 अस्पृश्य जातियां है, ये वो जातियां थीं जिनका धर्म नहीं था. इसलिए, इन जातियों को बहिष्कृत जाति कहा गया है. उस समय के ब्रिटिश प्रधानमंत्री (रैम्से मैक्डोनाल्ड) ने देखा कि हिन्दू, मुसलमान, सिख, एंग्लो इंडियन की तरह (बहिष्कृत जातियां एक स्वतंत्र वर्ग) है, इसलिए उनकी “सूची” तैयार करवाई गयी. उस सूची में समाविष्ट जातियों को ही अनुसूचित जाति कहा जाता है. इसी के आधार पर भारत सरकार द्वारा अनुसूचित जाति अध्यादेश 1935 के अनुसार कुछ सुविधाएं दी गई हैं. उसी आधार पर भारत सरकार ने अनुसूचित जाति अध्यादेश1936 जारी कर आरक्षण की सुविधा प्रदान की. 1936 के उसी अनुसूचित जाति अध्यादेश में बदलाव कर अनुसूचित जाति अध्यादेश 1950 पारित कर आरक्षण का प्रावधान किया गया.
भारत में आज भी जाति-धर्म के नाम पर कुछ मतलबी और ख़ुदग़र्ज़ लोग समाज में विभिन्न गलतफहमी पैदा कर केवल अपनी राजनैतिक रोटियां सेंक रहे हैं. जिन्हें खुद भी नही पता की अनुसूचित का मतलब क्या है. आरक्षण लोकतंत्र में सभी वर्गों को बराबरी का अवसर देने की पद्धति मात्र है न की आर्थिक रूप से सबल बनाने की कोई स्कीम. आरक्षण उनको मिला जिनके पूर्वजों को सैकड़ो वर्षो तक कभी बराबर का अधिकार नहीं मिला वो कहीं न कहीं मानसिक और शारीरिक गुलामी का शिकार था. लेकिन आज आरक्षण को लोग अलग-अलग देखते हैं. आरक्षण की गलत व्याख्या करते हैं. आज भी उच्च सेवाओं में इन वर्गों का प्रतिनिधित्व बहुत कम है. इस बात का मतलब यह नहीं है की इन वर्गों में क्षमता की कमी है बल्कि यह अवसर की कमी थी जो आरक्षण के माध्यम से इन वर्गों को सामाजिक तौर ऊपर या बराबर उठने का मौका मिला है. आज भी जाति के नाम पर अत्याचार हो रहे है जिसे यूनाइटेड नेशन्स ने संज्ञान में लिया और जिसे देखते हुए भारत सरकार ने अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निरोधक कानून में वर्ष 2016 में कई बदलाव किये. इसका मतलब यदि कानून बना तो आज भी अत्याचार हो रहे है और इन वर्ग के लोगों को न्याय नहीं मिल पा रहा इसीलिए भारत सरकार ने कानूनों पर बदलाव किया है.
समाज में सबको बराबरी का अवसर मिले. परंतु आज भी इन वर्गों के लोगो का उच्च पदों पर न पहुंच पाने का कारण समाज में व्याप्त परिवारवाद और पूंजीवाद है. पूंजीवाद और परिवारवाद धन और परिवार के दम पर उच्च पदों पर पहुंच गया और अन्य वर्ग के लोगों को वहां तक नहीं पहुंचने दे रहा है. ऐसे तत्व समाज में है जो आरक्षण को आर्थिक उन्नति से जोड़ कर देखते हैं जोकि संविधान में आरक्षण की दी व्यवस्था की सोच से विपरीत है. जिसका ध्यान समाज में रह रहे बुद्धिजीवियों को जरूर रखना होगा.
लेखक कानपुर में पासी प्रगति संस्थान से जुड़े हैं.
सन् 1931 में पहली बार तत्कालिक जनगणना आयुक्त (मि. जेएच हटन) ने संपूर्ण भारत के अस्पृश्य जातियों की जनगणना की और बताया कि भारत में 1108 अस्पृश्य जातियां है, ये वो जातियां थीं जिनका धर्म नहीं था. इसलिए, इन जातियों को बहिष्कृत जाति कहा गया है. उस समय के ब्रिटिश प्रधानमंत्री (रैम्से मैक्डोनाल्ड) ने देखा कि हिन्दू, मुसलमान, सिख, एंग्लो इंडियन की तरह (बहिष्कृत जातियां एक स्वतंत्र वर्ग) है, इसलिए उनकी “सूची” तैयार करवाई गयी. उस सूची में समाविष्ट जातियों को ही अनुसूचित जाति कहा जाता है. इसी के आधार पर भारत सरकार द्वारा अनुसूचित जाति अध्यादेश 1935 के अनुसार कुछ सुविधाएं दी गई हैं. उसी आधार पर भारत सरकार ने अनुसूचित जाति अध्यादेश1936 जारी कर आरक्षण की सुविधा प्रदान की. 1936 के उसी अनुसूचित जाति अध्यादेश में बदलाव कर अनुसूचित जाति अध्यादेश 1950 पारित कर आरक्षण का प्रावधान किया गया.
भारत में आज भी जाति-धर्म के नाम पर कुछ मतलबी और ख़ुदग़र्ज़ लोग समाज में विभिन्न गलतफहमी पैदा कर केवल अपनी राजनैतिक रोटियां सेंक रहे हैं. जिन्हें खुद भी नही पता की अनुसूचित का मतलब क्या है. आरक्षण लोकतंत्र में सभी वर्गों को बराबरी का अवसर देने की पद्धति मात्र है न की आर्थिक रूप से सबल बनाने की कोई स्कीम. आरक्षण उनको मिला जिनके पूर्वजों को सैकड़ो वर्षो तक कभी बराबर का अधिकार नहीं मिला वो कहीं न कहीं मानसिक और शारीरिक गुलामी का शिकार था. लेकिन आज आरक्षण को लोग अलग-अलग देखते हैं. आरक्षण की गलत व्याख्या करते हैं. आज भी उच्च सेवाओं में इन वर्गों का प्रतिनिधित्व बहुत कम है. इस बात का मतलब यह नहीं है की इन वर्गों में क्षमता की कमी है बल्कि यह अवसर की कमी थी जो आरक्षण के माध्यम से इन वर्गों को सामाजिक तौर ऊपर या बराबर उठने का मौका मिला है. आज भी जाति के नाम पर अत्याचार हो रहे है जिसे यूनाइटेड नेशन्स ने संज्ञान में लिया और जिसे देखते हुए भारत सरकार ने अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निरोधक कानून में वर्ष 2016 में कई बदलाव किये. इसका मतलब यदि कानून बना तो आज भी अत्याचार हो रहे है और इन वर्ग के लोगों को न्याय नहीं मिल पा रहा इसीलिए भारत सरकार ने कानूनों पर बदलाव किया है.
समाज में सबको बराबरी का अवसर मिले. परंतु आज भी इन वर्गों के लोगो का उच्च पदों पर न पहुंच पाने का कारण समाज में व्याप्त परिवारवाद और पूंजीवाद है. पूंजीवाद और परिवारवाद धन और परिवार के दम पर उच्च पदों पर पहुंच गया और अन्य वर्ग के लोगों को वहां तक नहीं पहुंचने दे रहा है. ऐसे तत्व समाज में है जो आरक्षण को आर्थिक उन्नति से जोड़ कर देखते हैं जोकि संविधान में आरक्षण की दी व्यवस्था की सोच से विपरीत है. जिसका ध्यान समाज में रह रहे बुद्धिजीवियों को जरूर रखना होगा.
लेखक कानपुर में पासी प्रगति संस्थान से जुड़े हैं.
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