अनुशासशहीनता के कारणों की सूचि
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भारतीय संस्कृति में गुरु और शिष्य का अटूट संबंध रहा है। गुरु को ब्रह्मा ,विष्णु और महेश के समान दर्ज़ा दिया गया है। अज्ञान को नष्ट करने वाला जो ब्रह्म रूपी प्रकाश है , वह गुरु है। प्राचीन काल से आश्रमों में गुरु शिष्य परंपरा का निर्वाह होता रहा है। प्राचीन काल मेंगुरु शिष्य के संबंधों का आधार था ,गुरु का ज्ञान , मौलिकता और नैतिक बल , उनका शिष्यों के प्रति स्नेह भाव तथा ज्ञान बाँटने का निस्वार्थ भाव। शिष्यों में गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा होती थी , प्रिं:डॉ मोहन लाल शर्मा गुरु की क्षमता में पूर्ण विश्वासतथा गुरु के प्रति समर्पण एवं आज्ञाकारी होना भी एक भाव था।
अनुशासन शिष्यों का एक महत्त्वपूर्ण गुण माना गया है। अनुशासन के बिना शिष्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पहले शिष्य सहनशील ,गुरु का सम्मान करने वाला एवं आज्ञाकारी होता था। उन्हीं शिष्यों में एकलव्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है जिसने अपने गुरु द्रोणाचार्य की आज्ञा का पालन करते हुए अपने अँगूठे को काटकर गुरु दक्षिणा के रूप में दे दिया था। प्रत्येक भारतवासी प्राचीन गुरु शिष्य परंपरा आज भी देखना चाहता है।
आधुनिक युग में गुरु शिष्य के संबंधों में बड़ी तेजी से बदलाव आ रहे हैं। आज के भौतिकवादी समाज में ज्ञान से अधिक धन को महत्त्व दिया जाने लगा है , अत: आज अध्यापन भी निस्वार्थ नहीं रह गया है। वह एक व्यवसाय के रूप में नजर आता है।
छात्र और शिक्षक का संबंध भी एक उपभोक्ता ( ग्राहक ) और सेवा प्रदाता का होता जा रहा है।
अनुशासन शिष्यों का एक महत्त्वपूर्ण गुण माना गया है। अनुशासन के बिना शिष्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पहले शिष्य सहनशील ,गुरु का सम्मान करने वाला एवं आज्ञाकारी होता था। उन्हीं शिष्यों में एकलव्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है जिसने अपने गुरु द्रोणाचार्य की आज्ञा का पालन करते हुए अपने अँगूठे को काटकर गुरु दक्षिणा के रूप में दे दिया था। प्रत्येक भारतवासी प्राचीन गुरु शिष्य परंपरा आज भी देखना चाहता है।
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