Hindi, asked by tenzero7350, 1 year ago

अनाथबालक की आत्मकथा पर निबंध

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Answered by Meresh2006
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एक बड़े देश की रानी को बच्चों पर बड़ा प्रेम था। वह अनाथ बालकों को अपने खर्च से पालती-पोसती। उसने यह आदेश दे रखा था कि ‘कोई भी अनाथ बालक मिले, उसे तुरंत मेरे पास पहुँचाया जाय।’

एक दिन सिपहियों को रास्ते में एक छोटा बच्चा मिला। उन्होंने उसे लाकर रानी के हाथों में सौप दिया। रानी सहज स्नेह से उसे पालने लगी।

बच्चा जब पाँच वर्ष का हो गया, तब उसे पढ़ने के लिए गुरुजी के यहाँ भेजा। वह मन लगाकर पढ़ने लगा। बालक था बड़ा सुंदर और साथ ही अच्छे गुणोंवाला और बुद्धिमान भी। इससे रानी की ममता उस पर बढ़ने लगी और यह उसे अपनी पेट के बच्चे की तरह प्यार करने लगी। बच्चा भी उसे अपनी सगी माँ के समान ही समझता था।

एक दिन वह जब पाठशाला लौटा, तब वह बहुत उदास था। रानी ने उसे अपनी गोद मे बैठा लिया और प्यार से गालों पर हाथ फेरकर उदासी का कारण पूछा। बच्चा रो पड़ा। रानी ने अपने आँचल से उसके आँसू पोछकर और मुँह चूमकर बड़े स्नेह से कहा – ‘बेटा ! तू रो क्यों रहा है।’ बच्चे ने कहा – ‘माँ! आज दिनभर पाठशाला में मेरा रोते ही बीता है। मेरे गुरूजी मर गये। मेरी गुरुआनी जी और उनके बच्चे रो रहे थे। मैंने उनको रोते देखा। वे कह रहे थे की हमलोग एकदम गरीब है, हमारे पास खाने-पीने के लिए कुछ नही है और न कोई ऐसे प्यारे पड़ोसी ही है, जो हमारी सहायता करे। माँ! उनको रोते देखकर और उनकी बात सुनकर मुझे बड़ा ही दू:ख हो रहा है। तुझे उनकी सहायता के लिये कुछ-न-कुछ करना पड़ेगा।

अनाथ बालक की दयालुता

बालक की बाते सुनकर रानी का ह्रदय दया से भर आया। उसने तुरंत नोकर को पता लगाने भेजा और बच्चे का मुँह चूमकर कहा- ‘बेटा! नन्ही-सी उम्र मे तेरी ऐसी अच्छी बुद्धि और अच्छी भावना देखकर मुझे बड़ी ही प्रसञता हुई है। तेरी गुरुआनी जी और उनके बच्चो के लिये मै अवश्य प्रबन्ध करुँगी। तू चिंता मत कर।

रानीके भेजे हुए आदमीने लौटकर बताया की ‘बात बिलकुल सच्ची है। ‘रानीने बच्चो को पाँच सौ रुपये देकर गुरुआनी के पास भेजा और फिर कुछ ही दिनों मे, उनके कुटुम्ब का निर्वाह हो सके और लड़के पढ़ सके इसका पूरा प्रबंध करवा दिया।’

Answered by manishasavekar
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Answer:

एक बालक अनाथाश्रम में जन्मा, पला और बड़ा हुआ। उसके माँ-बाप, रिश्तेदार कोई नहीं थे। उसका जाति-धर्म, वंश, गोत्र कुछ नहीं था। सिर्फ था एक नम्बर, जैसे कारावास में कैदी का होता है। वह ‘नेम नॉट नोन’ था। प्रश्नों से घिरी उसकी जिन्दगी में प्रश्नों ने ही उसे पाला-पोसा। प्रश्नों ने ही उसे वयस्क बनाया, समझदार बनाया। आज वह एक ‘वेलनोन’ सामाजिक कार्यकर्ता, साहित्यकार, समीक्षक, वक्ता, अनुवादक, सम्पादक और प्राचार्य के रूप में सुविख्यात है। एक सामाजिक ‘आयडॉल’ बना है। प्रस्तुत पुस्तक ‘नेम नॉट नोन’ सुनीलकुमार लवटे की आत्मकथा है। सबकुछ होने पर भी कुछ न करने वालों को यह आत्मकथा न सिर्फ सक्रिय करती है अपितु सोचने को भी प्रेरित करती है कि आखिर मनुष्य में वह कौन-सा रसायन होता है जो उसे सारी प्रतिकूलताओं को परास्त करने की ऊर्जा देता है, जीते-जी मृत्युंजय बनाता है।

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