अन्य पिछड़े वर्ग, दलितों (या अनुसूचित जातियों) से भिन्न कैसे हैं?
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जातियां यथार्थ हैं। वे न होतीं तो अच्छा होता, लेकिन ति सामाजिक सच्चाई है। बेशक सामाजिक समरसता आदर्श है, लेकिन आदर्श और व्यवहार में भारी अंतर होता है। बड़ी उपलब्धियां पाने वाले महानुभावों पर पहली जिज्ञासा निवास क्षेत्र और ति से ही जुड़ी रहती है। जब पीवी सिंधु को ओलंपिक में पदक मिला तो लाखों लोगों ने इंटरनेट पर उनकी जाति ही खोजने का प्रयत्न किया। सिविल सेवा और आइआइटी जैसी परीक्षाओं में शीर्ष स्थान पाने वाले अभ्यर्थियों के मामले में भी ऐसा ही होता है। राजनीति नि:संदेह जाति तत्व का लाभ उठाती है, लेकिन मध्यकाल में साधुओं की भी तियां पूछी रही थीं। तब कबीर ने कहा था ‘जाति न पूछो साधु की’। तब भी लोग जातियां ही नने को उत्सुक थे। संत कवियों को गाना पड़ा ‘जाति पांति पूछे न कोई, हरि को भजै सो हरि का होई’।
राष्ट्रपति के चुनाव में दोनों प्रत्याशी सुयोग्य हैं। राजग के प्रत्याशी रामनाथ कोविंद विनम्र, सदाशयी और संविधानवेत्ता हैं। वह संसद के सदस्य भी रहे हैं और भारतीय प्रशासनिक सेवा के सफल अभ्यर्थी भी। मीरा जी भी भारतीय विदेश सेवा और लोकसभा की अध्यक्ष रह चुकी हैं, लेकिन टिप्पणीकारों ने दोनों की जाति पर ज्यादा ध्यान दिया है। दलित बनाम दलित की चर्चा है। राजग बनाम संप्रग की नहीं।
मूलभूत प्रश्न है कि ति तत्व पर ही ज्यादा जोर क्यों है? क्या राजनीतिक कारणों से ही जाति तत्व ऊपर है या कोई अन्य महत्वपूर्ण कारण भी है? सवाल बड़ा है और विचारणीय भी। भारत की तियां जन्मना हैं। इनका ढांचा सीढ़ी जैसा है। सीढ़ी के शीर्ष वाली तियों का सम्मान रहा है। सीढ़ी में निचली जातियां सहज सामाजिक सम्मान से भी वंचित रही हैं। जाति विशेष का होना किसी व्यक्ति का स्वतंत्र चुनाव नहीं है। वंचित जाति समूह सामाजिक न्याय नहीं पा सके हैं। डॉ. अंबेडकर ने कोलंबिया विश्वविद्यालय में नृविज्ञान की गोष्ठी (1916) में ‘जातियों की उत्पत्ति और संरचना’ पर शोध प्रस्तुत किया था। उसमें उन्होंने कहा था ‘प्रत्येक समाज में भिन्न-भिन्न वर्ग होते हैं। बौद्धिक आर्थिक या अन्य कारणों से बने वर्ग अपना अस्तित्व भी रखते हैं। भारत में भी ऐसे ही वर्ग रहे होंगे। किसी समय किसी एक वर्ग वर्ण ने अपने ही वर्ण वर्ग में विवाह करने का बंधन लगाया होगा। जाति के उद्भव के अध्ययन से हमें इस प्रश्न का उत्तर मिलना चाहिए कि वह वर्ग कौन सा था जिसने अपने लिए बाड़ा खड़ा किया? मैं इसका प्रत्यक्ष नहीं अप्रत्यक्ष उत्तर ही दे सकता हूं। हिंदू समाज में कुछ प्रथाएं सर्वव्यापी थीं। अपने समस्त प्रतिबंधों के साथ वे ब्राह्मणों में भी थीं। ब्राह्मण वर्ग ने स्वयं की घेराबंदी जाति रूप में क्यों की? यह एक भिन्न प्रश्न है?’
ऋग्वैदिक काल में वर्ण नहीं थे, जाति भी नहीं। उत्तर वैदिक काल में वर्ण हैं, जाति नहीं। जाति की जन्मतिथि खोजना असंभव है, लेकिन प्रतिष्ठित की जाति पूछना भारतीय समाज की लत है। सामाजिक विकास के क्रम में पूर्वजों के अचेत कर्म का परिणाम है जाति। सचेत पूर्वजों ने जाति समाप्ति के लिए अथक श्रम भी किया। गांधी, डॉ. अंबेडकर, डॉ. हेडगेवार, डॉ. लोहिया, ज्योतिबा फुले, विवेकानंद और दयानंद ने भी जाति भेद के विरोध में नवगरण किया। इसके बावजूद कतिपय लोगों ने दलित तियों को जब तब भिन्न नस्ल भी बताया। एक बार डरबन में ‘नस्लवाद, नस्लीय भेदभाव और असहिष्णुता’ पर विश्व कांग्रेस का आयोजन था। भारत के कुछ लोगों ने तब दलितों को अलग नस्ल बताया, लेकिन डॉ. अंबेडकर ने दलितों को अलग नस्ल नहीं माना। उन्हें उम्मीद थी कि जातियां एक दिन खत्म होंगी। उन्होंने लिखा था ‘जाति का चलते रहना असंभव है। ऐसा कार्य दिक्कतों भरा है।’ सामाजिक समता का विषय टाला नहीं सकता। सामाजिक न्याय की दिशा में बेशक भारत का काम आगे बढ़ा है तो भी तियों की अस्मिता मजबूत है।
व्यावहारिकता की उपेक्षा नहीं की सकती। समानता ध्येय है। यूरोप के सुप्रतिष्ठ कवि शेली ने लिखा है, ‘प्रश्न यह नहीं है कि समानता वांछनीय है या नहीं? देखना चाहिए कि वह व्यावहारिक है या नहीं?’ समानता के औचित्य को प्रश्नगत नहीं किया सकता, लेकिन सामाजिक समरसता का रास्ता सामाजिक अन्याय की बाधाओं से बंद है। ‘सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय’ संविधान की उद्देशिका का मूल तत्व है। राजनीतिक न्याय ने मताधिकार दिया है। सरकारें विधायिका के प्रति जवाबदेह हैं। प्रशासन उत्तरदायी नहीं है। सामाजिक न्याय का लक्ष्य अधूरा है। वंचित वर्गो के लिए बहुत नीतियां बनीं, फिर भी प्रशासनिक संवेदनहीनता के चलते सामाजिक न्याय कोसों दूर है। इसलिए जब केआर नारायणन या रामनाथ कोविंद जैसे लोग सभी बाधाएं दूर कर प्रतिष्ठित होते हैं तो वंचित समुदाय को स्वाभाविक प्रसन्नता होती है। ऐसी प्रसन्नता या चर्चा ति की राजनीति नहीं होती। यह स्वाभाविक उल्लास है। दलतंत्र द्वारा वंचित वर्गो को ऐसे अवसर देने चाहिए। तभी ऐसी चर्चाओं पर पूर्ण विराम की संभावना है।
जाति चर्चा से बचना संभव नहीं। सामाजिक यथार्थ से टकराना ही होगा। एकात्मवादी विचार आदर्श है जिसके लिए विमर्श भी जरूरी है। परंपरा के साथ विज्ञान और ति मुक्त चिंता के साथ जाति समूहों की व्यथा पर चिंतन भी होना चाहिए। जाति अतिक्रमण का यही मार्ग है। कोई भी सामाजिक व्यवस्था आदर्श नहीं होती। उसमें परिवर्तन की गुंइश बनी ही रहती है। राजनीति सर्वाधिक सक्रिय क्षेत्र है। इसे सामाजिक परिवर्तन का उपकरण बनाना चाहिए। प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में इस दिशा में काफी काम हुआ है। जाति भेद घटे हैं। भौतिक परिवर्तन की गति तेज है। समाज का रासायनिक परिवर्तन सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों और धर्मगुरुओं को भी करना चाहिए। जातियां सच्चाई हैं। विधिक रक्षोपायों के बावजूद जातिभेद भी है, जातिगत अपमान भी है। राष्ट्र के अग्रणी महानुभावों को ही अग्निस्नान करना होगा। भारत का मन पंख फैलाकर उड़ा है। विश्व प्रतिष्ठा बढ़ी है, लेकिन हम जाति चर्चा को लेकर बिलावजह ही रुआंसे हैं।
अन्य पिछड़े वर्ग, दलितों (या अनुसूचित जातियों) में भिन्नता
अस्पृश्यता सामाजिक विषमता का स्पष्ट तथा विभेदात्मक स्वरूप था। बावजूद इसके, जातियों का एक बड़ा समूह ऐसा भी था, जिसका दर्जा काफी नीचे था। यह समूह विभिन्न प्रकार के भेदभावों का शिकार था।अन्य पिछड़ा वर्ग और दलित वर्ग इसके अंतर्गत आते है। इनकी परिभाषाओ को समझ कर ही हम दोनों वर्गों के अंतर को समझ सकते है , जो निन्मलिखित है -
अन्य पिछड़ा वर्ग - अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) एक वर्ग है, यह सामान्य वर्ग यानी जनरल में ही सम्मिलित होता है पर इसमें आने वाली कास्टे गरीबी और शिक्षा के रूप में पिछड़ी होती हैं यह भी सामान्य वर्ग का भाग है जो जातियाँ वर्गीकृत करने के लिए भारत सरकार द्वारा प्रयुक्त एक [1] सामूहिक शब्द है। यह अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के साथ-साथ भारत की जनसंख्या के कई सरकारी वर्गीकरण में से एक है।
'भारतीय संविधान में ओबीसी "सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों 'के रूप में वर्णित किया जाता है, और भारत सरकार उनके सामाजिक और शैक्षिक विकास को सुनिश्चित करने के लिए हैं - उदाहरण के लिए, ओबीसी सार्वजनिक क्षेत्र के रोजगार और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में 27% आरक्षण के हकदार हैं। जातियों और समुदायों के सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक कारकों के आधार पर जोड़ा या हटाया जा सकता है 'और इनको।सामाजिक न्याय और अधिकारिता भारतीय मंत्रालय द्वारा बनाए रखा ओबीसी की सूची, गतिशील है।
हिन्दू धर्म के भीतर पिछड़ी जातियाँ सम्मान-अपमान के बीचोंबीच खड़ी रही हैं। उनकी स्थिति को दलित जातियों से भिन्न समझने पर ही इस गुत्थी को सुलझाया जा सकता है कि हिन्दू धर्म को छोड़ने की बजाए उसमें अपनी दावेदारी कायम करने की कोशिश ओबीसी जातियों ने क्यों की।
दलित वर्ग - दलित शब्द का शाब्दिक अर्थ है- दलन किया हुआ। इसके तहत वह हर व्यक्ति आ जाता है जिसका शोषण-उत्पीडन हुआ है। समाजशास्त्री रामचंद्र वर्मा ने अपने शब्दकोश में दलित का अर्थ लिखा है, मसला हुआ, मर्दित, दबाया, रौंदा या कुचला हुआ, विनष्ट किया हुआ।भारतीय संविधान में इन जातियों को अनुसूचित जाति नाम से जाना जाता है।
भारत के संविधान में अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा प्राप्त करने वाले समुदायों को कुछ संरक्षण प्रदान किये जाते हैं, लेकिन यह बात हमेशा ही विवादग्रस्त रही है कि किन समुदायों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्रदान किया जाए. अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिलने का अर्थ है कि इन समुदायों को राजनैतिक प्रतिनिधित्व के रूप में, स्कूलों में आरक्षित सीटों के रूप में और सरकारी नौकरियों के रूप में वांछित ठोस लाभ प्राप्त होना. पिछले कुछ वर्षों में सामाजिक और राजनैतिक लामबंदी के कारण अनुसूचित जनजातियों की संख्या अब (एक से अधिक राज्यों में एक दूसरे से टकराती हुई) 700 तक पहुँच गई है, जबकि सन् 1960 में इनकी संख्या 225 थी. जैसे-जैसे अनुसूचित जनजातियों का दर्जा हासिल करने को इच्छुक समुदायों की संख्या बढ़ रही है, वैसे-वैसे ही किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता देने के औचित्य पर भी सवाल उठने लगे हैं और यही कारण है कि इसे दर्जा प्रदान करने के मानदंड की जाँच करने की माँग भी बढ़ती जा रही है.
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Q.1.- अन्य पिछड़े वर्ग’ पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
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