anaj ki barbadi es visay par apne vicar likhie
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इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं हो सकती कि कृषि प्रधान देश में अनुमान से अधिक अन्न उत्पादन न केवल समस्या बन जाए, बल्कि उसके सड़ने की नौबत भी आ जाए। दुर्भाग्य से अपने देश में यही हो रहा है। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में लक्ष्य से ज्यादा गेहूं का उत्पादन सरकार के लिए सिरदर्द बन गया है। गेहूं खरीद में सुस्ती और उसके भंडारण के लिए उपयुक्त व्यवस्था न होने से उसके सड़ने की आशंका न केवल गहरा गई है, बल्कि कुछ स्थानों से ऐसी खबरें आ रही हैं कि गेहूं को बर्बाद होने से बचाना मुश्किल है। हालांकि केंद्र और राच्य सरकारें यह अच्छी तरह जान रही थीं कि इस बार गेहूं की भरपूर फसल होने जा रही है, लेकिन बावजूद इसके वे उसके भंडारण की व्यवस्था नहीं कर सकीं। इस संदर्भ में उनके पास वही घिसा-पिटा बहाना है कि सरकारी गोदामों में पर्याप्त जगह नहीं और नए गोदाम बनने में समय लगेगा। यह बहानेबाजी तब की जा रही है जब भंडारण के अभाव में पिछले कई वर्षो से अनाज सड़ रहा है। स्थिति कितनी दयनीय है, यह इससे समझा जा सकता है कि केंद्र सरकार राच्यों को गेहूं खरीद के लिए पर्याप्त बोरे भी उपलब्ध नहीं करा पा रही है। केंद्र सरकार की मानें तो बांग्लादेश से जूट बोरों के आयात का निर्णय लिया गया है। यह और कुछ नहीं, आग लगने पर कुआं खोदने जैसा प्रकरण है। क्या इससे विचित्र और कुछ हो सकता है कि कृषि मंत्रालय और खाद्य एवं आपूर्ति मंत्रालय के अस्तित्व में होते हुए भी कोई यह अनुमान न लगा पाए कि इस वर्ष अनाज उत्पादन अनुमान से कम या च्यादा होने जा रहा है। गेहूं सड़ने की आशंका इसलिए दुखदायी है, क्योंकि हमारे नीति-नियंता इससे अच्छी तरह परिचित हैं कि देश में किस तरह एक बड़ी संख्या में लोगों को भरपेट भोजन नहीं मिल पाता। आखिर यह कैसा देश है जो न तो कुपोषण की समस्या से निपट पा रहा है और न ही अन्न को बर्बाद होने से रोक पा रहा है। यह अच्छी बात है कि देश के कुछ हिस्सों में गेहूं के सड़ने अथवा उसे खुले आसमान में रखे जाने की तैयारी के बीच संसद में यह मामला उठा, लेकिन इतने मात्र से इसके प्रति सुनिश्चित नहीं हुआ जा सकता कि अन्न के रखरखाव की कोई समुचित व्यवस्था बन सकेगी। ऐसे आसार इसलिए हैं, क्योंकि सरकार को यह समझ ही नहीं आ रहा है कि जो हजारों टन पुराना अन्न सरकारी गोदामों में रखा है उसका क्या किया जाए? ऐसा लगता है कि सरकार के पास अन्न भंडारण के संदर्भ में न तो कोई नीति है और न ही उसे इसकी परवाह है कि उसकी नाकामी के चलते हर वर्ष हजारों टन खाद्यान्न बर्बाद हो जाता है। भले ही खाद्यान्न के सड़ने से केंद्र और राच्य सरकारों की सेहत पर कोई फर्क न पड़ता हो, लेकिन उन्हें यह अहसास होना ही चाहिए कि अन्न की बर्बादी होते देख किसानों का मनोबल तो प्रभावित होता ही है, निर्धन तबके को अपनी उपेक्षा का भी बोध होता है। यदि अनाज की इसी तरह बर्बादी होती रही तो एक समय ऐसी भी स्थिति आ सकती है कि उसके उत्पादन के लक्ष्य पीछे छूट जाएं। यह हास्यास्पद है कि केंद्रीय सत्ता एक ओर खाद्य सुरक्षा कानून बनाने जा रही है और दूसरी ओर अनाज को सड़ाने का भी काम कर रही है।