Hindi, asked by RishabhKumarthegreat, 2 months ago

anuched on birds and animals at corona in hindi​

Answers

Answered by srujanharish2011
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Answer:

IT WONT COME

Explanation:

Answered by riyasinghclassesdav
2

कोरोना काल में इंसान ही नहीं पशु पक्षी भी दाने-दाने के लिए मुहंताज हो गए। कोई चरकर तो काई दाना चुगकर अपने पेट की ज्वाला शांत करने वाले प्राणी इधर उधर भ्रमण करते हुए इंसानों के बीच परिवेश पाने के लिए तरसते रहे। कहा जाता है कि ईश्वर ने इंसान, पशु, पक्षी, कीड़े मकोड़े, जलचर, स्थलचर समेत सभी प्रकार के योनियों का निर्माण एक दूसरे के पुरक के रूप में किया है। किसी एक के बिना सृष्टि की पूरी परिकल्पना करना असहज लगता है। कोरोना काल ने इंसानों के इर्द-गिर्द रहकर अपना जीवन चलाने वाने पशु पक्षियों को काफी प्रभावित किया। कोराना काल में पशुओं को बेहतर और हरे चारे की कमी खली तो पक्षियों को दाना की खोज में काफी मशक्कत करनी पड़ी। कल तक पक्षियों को दाना खिलाकर अपने ग्रह दोष का निवारण करने वाले लोग भी कोरोना वायरस के संक्रमण के भय से अपने दिनचर्या से इसे बाहर कर दिया। ऐसे में बेजुबान पशु पक्षियों पर भी कोरोना किसी प्राकृतिक आपदा से कम नहीं प्रभाव डाला।पशुओं को रोटी तो पक्षियों को दाना खिलाने वाले लोग दर्शन को तरसतेपशुओं विशेषकर काली गाय व कुत्ते को रोटी, उरद का पकौड़ा खिलाकर ग्रह दोष निवारण करने वाले कोयलांचल कुजू के लोग कोरोना काल में अपने इस दिनचर्या के साथ ही आने वाले दिनों की भयावहता को ध्यान में रखते हुए पशुओं को भोजन करना रोक दिया। इससे पशुओं के समक्ष भी पेट की ज्वाला शांत करने की समस्या बन आई। वहीं पशुओं के खुलेआम घूमना रूक जाने व दाना कुट्टी के न मिलने व मनमाने दाम हा जाने के कारण मवेशियों को परेशानी का सामना करना तो पक्षियों को दाना खिलाने वाले धर्मप्रेमीजनों के मुहं मोड़ लेने अथवा दाना न दे पाने की असमर्थता के कारण पक्षियों को भी दाने-दाने को मुहंताज होना पड़ा। पक्षियों को दाना खिलाने से वंचित होने पर रहे काफी निराश कबूतर व गोरैया को चावल खिलाना अपनी प्रत्येक दिन की दिनचर्या बना रखे तोपा में प्रैक्टिस करने वाले डॉ चंद्र भूषण कहते हैं कि वे कोरोना काल में सांडी स्थित अपने से बाहर नहीं निकलते थे। किंतु उनका ध्यान अपने रोगियों से भी ज्यादा अपने क्लिनिक के खुलते ही दाना पाने की चाह में पहुंचने वाले इन बेजुबान प्राणियों के लिए सदैव लगा रहता था। लगभग एक सप्ताह पूर्व से अपने क्लिनिक को खोलने के बाद दो दिनों तक इन बेजुवान कबूतरों व गोरैया को नहीं देखने के बाद ऐसा लगा जैसे कोरोना काल में ये सभी मर गए। जब तीसरे दिन से क्लिनिक के सामने रेस्ट हाऊस के पास के पेड़ पर डेरा डाले कबूतर व गोरैया पुन: वहां पहुंचने लगे तो जान में जान आ गई। प्रसन्नता इतनी कि जैसे मानो अपना बिछड़ा मिल गया हो। डॉ भूषण बताते हैं कि वे प्रत्येक दिन एक किलो चावल इन बेजुबान लोगों को खिलाकर ही अपने क्लिनिक से आवास जाते हैं। कहते हैं कर भला तो हो भला सब भले का भला।

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