अपने अनुसार बाल श्रम देश और समाज के लिए किस प्रकार सहित करें बाल श्रम पर रोक लगाने के लिए क्या-क्या किया जा सकता है
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Explanation:
समाज क भावी तबके को इस विभीषिका से छूटकारा दिलाने वाले उपायों में सामाजिक ढांचे व आर्थिक विकास की संरचना में बुनियादी बदलाहट जरूरी लगती है । इसके लिए संबंधित कानून कड़ाई लगे । सम्पूर्ण बचपन के लिए शिक्षा अनीवार्य कर दी जाए । गरीबी दूर करने वाले सभी व्यवहारिक उपाय उपयोग में लाए जाए । इन्हीं बातों के परिप्रेक्ष्य में बचपन की आँखों में चमक लाने डी के उद्देश्य से आज की दुनियाँ के एक “अंतराष्ट्रीय श्रम संगठन” ने वर्ष 1919 में ऐलान किया की बाल मजदूरी नाम की चीज खत्म होनी चाहिए ।
कार्यक्रम व उपाय चाहे आई.एल.ओ. के हों या यूनिसेफ के अथवा योजनाएँ भारत सरकार की हो या राज्य सरकार की, देखने में यही आ रहा है की इन सब की धज्जियाँ उड़ाने वाले मजदूर बच्चों के दलालों की जमात बढ़ती ही जा रही है यहाँ तक कि आज हमारे बीच समक का एक ऐसा वर्ग है जो अपनी सुविधा के लिहाज से ही जायज ठहराता है । कभी- कभी ऐसा लगता है कि हमारी सरकार भी इन सबके आगे घुटने टेक चुकी है । यदि ऐसा न होता तो लगभग तीन दशकों से चली आ रही इस समस्या का उल्लेख अंतिम जनगणना रिपोर्ट (1991) में बाल मजदूरों का अध्याय नदारद न होता । आज इन हालातों में हमें यह सोचने को मजबूर कर दिया है कि क्या मजदूर बच्चों की सही संख्या, उनकी जीवन दशा और भावी दिशा का लेखा- जोखा सामने रखने की जरूरत नहीं रही ? यद्यपी इस समस्या की बढ़ती हुई विकराल स्थिति ने वर्ष 1994 की 15 अगस्त को भारत के प्रधानमंत्री ने बाध्य होकर इस मुद्दे पर अपना लगभग तीन मिनट का वक्तव्य दिया और रूपए 850 करोड़ की योजना बनाने की बात भी कही । किन्तु आज आई. एल. ओ. यूनिसेफ और भारत सरकार द्वारा करोड़ों रूपए खर्च किए जाने के बाद भी अब तक केवल पांच से दस प्रतिशत बच्चों को पुनर्वास की सुविधा दी जा सकी । समस्या यह है की उन्हें मुक्त कराकर कहाँ ले जाए । इस कमी के चलते विमुक्त मजदूर बच्चे या तो सड़क पर आ जाते हैं अथवा कहीं दूसरी जगह फिर पुरानी शर्तों पर काम करने के अलावा उनके ओआस कोई दूसरा चारा नहीं रहता है । इसके अतिरिक्त, सरकार द्वारा संचालित विभिन्न योजनाओं के जरिये कुछ बाल मजदूरों को तो शोषण से मुक्त कराया जा सकता है लेकिन इस दिशा में किसी सार्थक परिणाम की उम्मीद नहीं की जा सकती । बल्कि इस प्रयासों के द्वारा जितने बालकों तक पहुंचा जाता है, उसी दौरान उनसे अधिक बच्चे बाजार में मजदूरी करने पहुँच जाते है अत: इस समस्या के वास्तविक समाधान के लिए समष्टिगत (मैक्रोलेब्ल) प्रयास करने होंगे । दरअसल, इस समय उनकी तत्कालिक बाधाओं को लेकर सोंच विचार हो रहे हैं, लेकिन उनकी रोकथाम पर कुछ भी प्रयास नहीं दिखता ।
अत: बाल मजदूरों को मुक्ति दिलाने, इस समस्या से छूटकारा पाने या समाधान की दिशा में सोचना जरूरी हो रहा है । मोटे तौर पर इसके उन्मूलन के लिए की प्रमुख बिंदूओं पर गौर किया जाना चाहिए । पहला बिन्दु इसके संदर्भ में राष्ट्र जागरण का होगा । सरकारी हो या स्वैच्छिक संगठन, सामान्य लोग हों या मीडिया से जुड़े लोग जब तक हर कोई यह महसूस नहीं करता की यह एक सामाजिक बुराई है तब तक इस मामले में कुछ होने वाला नहीं । दुसरे शिक्षा के क्षेत्र में भी प्रयास जरूरी है । शिक्षित अथवा साक्षर करने से अलग हटकर ऐसी शैक्षणिक प्रणाली के बारे में सोचना होगा जो ऐसे बच्चों के व्यवहार वातावरण और आर्थिक स्थिति से जुड़े हुए हों । तीसरे पायदान पर कानून की दिशा में सरकार को सार्थक प्रयास करने ही होगें । कानूनों को लागू करने में कड़ाई बरतना जरूरी है किन्तु उसे ईमानदारी से दण्डोन्मूख के बजाय निंयत्रणन्मूख रखना पड़ेगा । वस्तुत: आज इन कानूनों के पालन हेतु एक वातावरण भी बनाने की आवश्यकता है ।
चिकित्सा की सुविधा होनी चाहिए । साथ ही उनके लिए उपहार की व्यवस्था भी जरूरी मानी गयी । किन्तु औद्योगिक इकाइयाँ ऐसी जगह हैं । कि यहाँ कानून व नियमों की अवहेलना का सिलसिला बंद होता नजर नहीं आता । उनमें बहुत बड़ी संख्या में बाल मजदूर काम करते रहते हैं, उनकी वास्तविक संख्या का पता ही नहीं लग पाता । जबकि वास्तविक यह है की प्रशासनिक तंत्र के साथ इकाई धारकों का तरल तालमेल और साठ- गांठ के तरह इनमें बाल मजदूर जाँच के समय छिपा दिये जाते हैं ।
“यूनिसेफ’ की रिपोर्ट के अनुसार वैसे तो दुनिया भर में लगभग 40 करोड़ बाल मजदूर हैं किन्तु अन्य देशों से अलग हमारे यहाँ करोड़ों लगाकर बड़े व आकर्षक विज्ञापनों के जरिये इस शर्मनाक समस्या के करने वाली बात बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर है । घातक, नुकसान पहूँचाने वाले खतरनाक उद्योगों से बाल मजदूरी प्रथा समाप्त करने के उद्देश्य से हाल ही में (10 दिसम्बर,1996) भारत के सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक फैसले में ऐसे बाल मजदूर 4.40 करोड़ से लेकर 10.0 करोड़ तक माने गए हैं । न्यायालय के मंशा है कि इन बच्चों को 21 वीं सदी के अंत तक मुक्ति सुख कि साँस मिल सकेगी । किन्तु यह न्यायसंगत, अति मानवीय चाह पूरी होती नजर नहीं आती । वैसे तो यकीनी तौर पर जानलेवा उद्योगों में काम कर रहे इन बचपन के लिए उम्मीद के सपने जागे हैं । “उपवन” भी बचपन बचाने के इस संकल्प का स्वागत करता है । व्याहारिक समाधान की दृष्टि से देश की सबसे बड़ी इस अदालत ने कुछ उपाय भी सुझाये हैं किन्तु आज के इस माहौल में जहाँ घोटालों व घपलों के रोज के सिलसिले जारी हैं, नौकरशाही मनमाने तौर- तरीकों से काम कर रही है, और इन समस्याओं से जूझने वाले सक्षम तथा संस्थाएँ और विभाग पैसे कमाने की उपजाऊ जमीन बन गये हों वहाँ संकल्प, सुझाव, कानून और उपाय के कारगार होने में शक पैदा होना स्वाभाविक है ।