'अपनी संस्कृति अपनी धरोहर' विषय को दर्शाते हुए सर्वसाधारण के लिए एक संदेश लिखिए।
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राजस्थान में दुर्ग निर्माण की परम्परा पूर्व मध्यकाल से ही देखने को मिलती है। यहाँ शायद ही कोई जनपद हो, जहाँ कोई दुर्ग या गढ़ न हो। इन दुर्गों का अपना इतिहास है। इनके आधिपत्य को लेकर कई लड़ाइयाँ भी लड़ी गई। कई बार स्थानीय स्तर पर तो यदा-कदा विदेशी सत्ता द्वारा इन पर अधिकार करने को लेकर दीर्घ काल तक संघर्ष भी चले। युद्ध कला में दक्ष सेना के लिए दुर्ग को जीवन रेखा माना गया है। यहाँ यह बात महत्त्वपूर्ण है कि सम्पूर्ण देश में राजस्थान वह प्रदेश है, जहाँ पर महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के बाद सर्वाधिक गढ़ ओर दुर्ग बने हुए हैं। एक गणना के अनुसार राजस्थान में 250 से अधिक दुर्ग व गढ़ हैं। खास बात यह कि सभी किले और गढ़ अपने आप में अद्भुत और विलक्षण हैं। दुर्ग निर्माण में राजस्थान की स्थापत्य कला का उत्कर्ष देखा जा सकता है। प्राचीन ग्रंथों में किलों की जिन प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख हुआ है, वे यहाँ के किलों में प्रायः देखने को मिलती हैं। सुदृढ़ प्राचीर, अभेद्य बुर्ज, किले के चारों तरफ़ गहरी खाई या परिखा, गुप्त प्रवेश द्वार तथा सुरंग, किले के भीतर सिलहखाना (शस्त्रागार), जलाशय अथवा पानी के टांके, राजप्रासाद तथा सैनिकों के आवास गृह-यहाँ के प्रायः सभी किलों में विद्यमान है।
राजस्थान में दुर्गों का निर्माण दरअसल विभिन्न रूपों में हुआ है। कतिपय दुर्गों के प्रकार निम्नांकित हैं-
धान्वन दुर्ग- ऐसा दुर्ग जिसके दूर-दूर तक मरु भूमि फैली हो, जैसे-जैसलमेर का किला।
जल दुर्ग- ऐसा दुर्ग जो जल राशि से घिरा हो, जैसे- गागरोन का किला
वन दुर्ग- वह दुर्ग जो कांटेदार वृक्षों के समूह से घिरा हो, जैसे सिवाणा दुर्ग।
पारिख दुर्ग- वह दुर्ग जिसके चारों तरफ़ गहरी खाई हो, जैसे भरतपुर का लोहागढ़, चित्तौड़गढ़ दुर्ग।
गिरि दुर्ग- किसी ऊँची दुर्गम पहाड़ी पर एकान्त में स्थित दुर्ग, जैसे मेहरानगढ़, रणथम्भौर, चित्तौड़गढ़।
एरण दुर्ग- वह दुर्ग जो खाई, कांटों एवं पत्थरों के कारण दुर्गम हो, जैसे चित्तौड़ एवं जालौर दुर्ग।
उक्त दुर्गों के प्रकार के अतिरिक्त दुर्गों के अन्य प्रकार भी होते हैं। यहाँ यह जान लेना उचित होगा कि कुछ दुर्ग ऐसे भी हैं, जिन्हें दो या अधिक दुर्गों के प्रकार में शामिल किया जा सकता है, जैसे चित्तौड़ के दुर्ग को गिरि दुर्ग, पारिख दुर्ग एवं एरण दुर्ग की श्रेणी में भी विद्वान रखते हैं। वैसे दुर्गों के सभी प्रकारों में सैन्य दुर्गों को श्रेष्ठ माना जाता है। ऐसे दुर्ग व्यूह रचना में चतुर वीरों की सेना के साथ अभेद्य समझे जाते थे। चित्तौड़ दुर्ग सहित राजस्थान के कई दुर्गों को ‘सैन्य दुर्ग’ की श्रेणी में रखा जाता है। आचार्य कौटिल्य, शुक्र आदि ने भी दुर्गों के महत्त्व एवं वास्तुशिल्प के बारे में संक्षेप में लिखा है। शासकों को यह निर्देश दिया गया है कि वे अधिकाधिक किलों पर अपना आधिपत्य स्थापित करें। राजस्थान में किलों का स्थापत्य वास्तुशिल्पियों के मानदण्ड के अनुसार ही हुआ है। मध्यकाल में यहाँ अनेक किलों का निर्माण हुआ और दुर्ग स्थापत्य कला में एक नया मोड़ आया। किलों का निर्माण करते समय अब इस तथ्य पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा कि दुर्ग ऐसी पहाड़ियों पर बनाये जावें जो ऊँची के साथ चौड़ी भी हो तथा जहाँ खेती और सिंचाई के साधन हों। इसके अतिरिक्त, जो ऐसी पहाड़ियों पर प्राचीन दुर्ग बने हुए थे, उन्हें फिर से नया रूप दिया गया।
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