'अरे इन दोहुन राह न पाई' पद में किन आडंबरों और कुरीतियों की निंदा की गई है
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‘अरे इन दोहुन राह न पाई’ इस पद में कबीर ने समाज के हिंदू और मुसलमान में व्याप्त आडंबर और और दोहरे चरित्र की निंदा की है।
कबीर कहते हैं कि हिंदू अपनी बड़ाई करते हैं। किसी व्यक्ति को अछूत मानकर अपना घड़ा तक नहीं छूने देते हैं, लेकिन वेश्या के पास जाने से जरा भी नहीं हिचकते। किसी इंसान को मात्र अछूत मानकर ही उसके द्वारा छूने से अशुद्ध हो जाते हैं, चाहे वो इंसान कितना भी सच्चरित्र क्यों ना हो, लेकिन गलत काम हेतु वेश्या के पास जाने से अशुद्ध नही होते। ये दोहरी मानसिकता है।
मुसलमान भी माँस-मच्छी खाते हैं, मुर्गा खाते हैं। जीवित जीव को अपने घर लाते हैं और उसे मारकर-काटकर खा जाते हैं और इसमें घर की औरतें भी चटखारे ले लेकर वह मांस खाती हैं और उसकी बढ़ाई करती हैं।
इस तरह कबीरदास जी कहते हैं कि हिंदुओं की अपने-अपने पाखंड हैं और मुसलमानों के अपने पाखंड। दोनों अपने-अपने पाखंड करने में व्यस्त हैं, लेकिन अपने-अपने समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने की चेष्टा नहीं करते और धर्म के नाम पर भी आपस में एक दूसरे से लड़ते रहते हैं।
इस तरह ‘अरे इन दोहुन राह न पाई’ इन पंक्तियों के माध्यम से अपने पद में हिंदू और मुसलमानों में व्याप्त पाखंडवाद, व दिखावा जैसी कुरीतियों पर प्रहार किया है।
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