Hindi, asked by ritik2008, 4 months ago

अर्जुन ने पितामह भीष्म की प्यास कैसे बुझाई​

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Answered by gaytri9648
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Answer:

संजय बताते हैं- महाराज शय्या पर लेटे भीष्म का शिर लटक रहा था तब भीष्म ने अन्य राजाओं से तकिया मांगा। तब उनके लिए कोमल व सुंदर तकिए मंगाए, जिन्हें उन्होंने अस्वीकार कर दिया तब अर्जुन ने उनके लिए बाणों का तकिया दे दिया। अब भीष्म प्यास लगने पर अर्जुन से जल मांगते हैं तब अर्जुन धरती से दिव्य जल निकालकर उनकी प्यास बुझाते हैं, जिसका वर्णन महाभारत भीष्म पर्व में भीष्मवध पर्व के अंतर्गत 121वें अध्याय में दिया गया है, जो इस प्रकार है[1]-

भीष्म के मांगने पर अर्जुन द्वारा जल उत्पन्न कर भीष्म की प्यास बुझाना

संजय कहते हैं- महाराज! जब रात बीती और सवेरा हुआ, उस समय सब राजा, पाण्डव तथा आपके पुत्र पुन: वीर-शय्या पर सोये हुए वीर पितामह भीष्म की सेवा में उपस्थित हुए। कुरुश्रेष्ठ! वे सब क्षत्रिय क्षत्रिय-शिरोमणि भीष्म जी को प्रणाम करके उनके समीप खडे़ हो गये। सहस्रों कन्याएं वहाँ आकर चंदन-चूर्ण, लाजा (खील) और माला-फूल आदि सब प्रकार की शुभ सामग्री शांतनुनंदन भीष्म के ऊपर बिखेरने लगीं। स्त्रियां, बूढे़, बालक तथा अन्य साधारण जन शांतनुकुमार भीष्म जी का दर्शन करने के लिये वहाँ आये, मानो समस्त प्रजा अधंकार नाशक भगवान सूर्य की उपासना के लिये उपस्थित हुई हो। सैकड़ों बाजे और बजाने वाले, नट, नर्तक और बहुत-से शिल्पी। कुरुवंश के वृद्ध पुरुष पितामह भीष्म के पास आये। कौरव तथा पाण्डव युद्ध से निवृत्त हो कवच खोलकर अस्त्र-शस्त्र नीचे डालकर पहले की भाँति परस्पर प्रेमभाव रखते हुए अवस्था की छोटी-बड़ी के अनुसार यथोचित क्रम से शत्रुदमन दुर्जय वीर देवव्रत भीष्म के समीप एक साथ बैठ गये। सैकडो़ं राजाओं से भरी और भीष्म से सुशोभित हुई वह भरतवंशियों की दीप्तिशालिनी सभी आकाश में सूर्यमण्डल की भाँति उस रणभूमि में शोभा पाने लगी। गंगानंदन भीष्म के पास बैठी हुई राजाओं की वह मण्डली देवेश्र्वर ब्रह्मा जी की उपासना करने वाले देवताओं के समान सुशोभित हो रही थी।

भरतश्रेष्ठा! भीष्म जी बाणों से संतप्त होकर सर्प के समान लम्बीक सांस खींच रहे थे। वे अपनी वेदना को धैर्यपूर्वक सह रहे थे। बाणों की जलन से उनका सारा शरीर जल रहा था। वे शस्त्रों के आघात से मूर्च्छित हो रहे थे। उस समय उन्होंने राजाओं की ओर देखकर केवल इतना ही कहा ‘पानी’। राजन! तब वे क्षत्रियनरेश चारों ओर से भोजन की उत्तमोत्तम सामग्री और शीतल जल से भरे हुए घडे़ ले आये। उनके द्वारा लाये हुए उस जल को देखकर शांतनुनंदन भीष्म ने कहा- ‘अब मैं मनुष्य लोक के कोई भी भोग अपने उपयोग में नहीं ला सकता, मैं उन्हें छोड़ चुका हूँ। यद्यपि यहाँ बाणशय्या पर सो रहा हूं, तथापि मनुष्य लोक से ऊपर उठ चुका हूँ। केवल सूर्य-चन्द्रमा के उत्तरपथ पर आने की प्रतीक्षा में यहाँ रुका हुआ हूं’। भारत! ऐसा कहकर शांतनुनंदन भीष्म ने अपनी वाणी द्वारा अन्य राजाओं की निंदा करते हुए कहा- ‘अब मैं अर्जुन को देखना चाहता हूं’। तब महाबाहु अर्जुन पितामह भीष्म के पास जाकर उन्हें प्रणाम करके हाथ जोडे़ खडे़ हो गये और विनयपूर्वक बोले- ‘मेरे लिये क्या आज्ञा है, मैं कौन-सी सेवा करूं?’ राजन! प्रणाम करके आगे खडे़ हुए पाण्डुपुत्र अर्जुन को देखकर धर्मात्मा भीष्म, बड़े प्रसन्न हुए और इस प्रकार बोले- ‘अर्जुन! तुम्हारे बाणों से मेरे सम्पूर्ण अंग बिंधे हुए हैं; अत: मेरा यह शरीर दग्ध-सा हो रहा है। सारे मर्मस्थानों में अत्यंत पीड़ा हो रही है। मुंह सूखता जा रहा है। महाधनुर्धर अर्जुन! वेदना से पीड़ित शरीर वाले मुझ वृद्ध को तुम पानी लाकर दो। तुम्हीं विधिपूर्वक मेरे लिये दिव्य जल प्रस्तुत करने में समर्थ हो’।

तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर पराक्रमी अर्जुन रथ पर आरूढ़ हो गये और गाण्डीव धनुष पर बलपूर्वक प्रत्यंचा चढ़ाकर उसे खींचने लगे।[1] उनके धनुष की टंकार ध्वनि वज्र की गड़गड़ाहट के समान जान पड़ती थी। उसे सुनकर सभी प्राणी और समस्त भूपाल डर गये। तब रथियों में श्रेष्ठ पाण्डुपुत्र अर्जुन ने शरशय्या पर सोये हुए सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में उत्तम भरतशिरो‍मणि भीष्म की रथ द्वारा की परिक्रमा करके अपने धनुष पर एक तेजस्वी बाण-का संधान किया और सब लोगों के देखते-देखते मन्त्रोचारणपूर्वक उस बाण को पर्जन्‍यास्त्र से संयुक्ति करके भीष्म के दाहिने पार्श्व में पृथ्वी पर उसे चलाया। फिर तो शीतल, अमृत के समान मधुर तथा दिव्य सुगंध एवं दिव्यरस से संयुक्त जल की सुंदर स्वच्छ धारा ऊपर की ओर उठकर भीष्म के मुख में पड़ने लगी। उस शीतल जल धारा से अर्जुन ने दिव्यकर्म एवं पराक्रम वाले कुरुश्रेष्ठ भीष्म को तृप्त कर दिया। इन्द्र के समान पराक्रमी अर्जुन के उस अद्भुतकर्म से वहाँ बैठे हुए समस्त भूपाल बड़े विस्मय को प्राप्त हुए। अर्जुन का वह अलौकिक कर्म देखकर समस्त कौरव सर्दी की सतायी हुई गौओं के समान थर-थर कांपने लगे। वहाँ बैठे हुए नरेशगण आश्चर्य से चकित हो सब ओर अपने दुपट्टे हिलाने लगे। चारों ओर शंख और नगाड़ों की गम्भीर ध्वनि गूँज उठी।[2]

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