अरुण सरोरुह कर चरन दृग खंजन मुख चंद समय आय सुंदरता सरद काहि न करति अनंद पर व्याख्या
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कोऊ कोरिक संग्रहौ कोऊ लाख हजार।
मो सम्पति जदुपति सदा बिपति-बिदारनहार॥
कोई हजारों, लाखों या करोड़ों की सम्पत्ति संग्रह करे, किन्तु मेरी सम्पत्ति तो वही सदा ‘विपत्ति के नाश करने वाले’ यदुनाथ (श्रीकृष्ण) हैं।
ज्यौं ह्वैहौं त्यौं होऊँगौ हौं हरि अपनी चाल।
हठु न करौ अति कठिनु है मो तारिबो गुपाल॥
हे कृष्ण, मैं अपनी चाल से जैसा होना होगा, वैसा होऊँगा। (मुझे तारने के लिए) तुम हठ न करो। हे गोपाल, मुझे तारना अत्यन्त कठिन है-(हँसी-खेल नहीं है, तारने का हठ छोड़ दो, मैं घोर नारकी हूँ)।
करौ कुबत जगु कुटिलता तजौं न दीनदयाल।
दुखी होहुगे सरल चित बसत त्रिभंगीलाल॥
कुबत = कुघार्त्ता, निन्दा। त्रिभंगीलाल = बाँके बिहारी लाल-मुरली बजाते समय पैर, कमर और गर्दन कुछ-कुछ टेढ़ी हो जाती है, जिससे शरीर में तीन जगह टेढ़ापन (बाँकपन) आ जाता है-वही त्रिभंगी बना है।
संसार भले ही निंदा करे, किन्तु हे दीनदयालु, मैं अपनी कुटिलता छोड़ नहीं सकता; क्योंकि हे त्रिभंगीलाल, मेरे सीधे चित्त में बसने से तुम्हें कष्ट होगा (सीधी जगह में टेढ़ी मूर्त्ति कैसे रह सकेगी? त्रिभंगी मूर्त्ति के लिए टेढ़ा हृदय भी तो चाहिए)।
मोहिं तुम्हैं बाढ़ी बहस को जीतै जदुराज।
अपनैं-अपनैं बिरद की दुहूँ निबाहन लाज॥
मुझमें और तुममें बहस छिड़ गई है, हे यदुराज! देखना है कि कौन जीतता है। अपने-अपने गुण की लाज दोनों ही को निबाहना है। (तुम मुझे तारने पर तुले हो, तो मैं पाप करने पर तुला हूँ; देखा चाहिए किसकी जीत होती है!)
निज करनी सकुचें हिं कत सकुचावत इहिं चाल।
मोहूँ-से अति बिमुख त्यौं सनमुख रहि गोपाल॥
हे गोपाल, मैं तो अपनी ही करनी से लजा गया हूँ, फिर तुम अपनी इस चाल से मुझे क्यों लजवा रहे हो कि मुझ-जैसे अत्यन्त विमुख के तुम सम्मुख रहते हो-(मैं तुम्हें सदा भूला रहता हूँ, और तुम मुझे सदा स्मरण रखते हो!)
तौ अनेक औगुन भरी चाहै याहि बलाइ।
जौ पति सम्पति हूँ बिना जदुपति राखे जाइ॥
यदि बिना सम्पत्ति के भी श्रीकृष्ण (मेरी) पत रखते जायँ-प्रतिष्ठा बचाये रक्खें, तो अनेक अवगुणों से भरी इस (सम्पत्ति) को मेरी बलैया चाहे।
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