अर्थ बताए
कीन्हि प्रीति कछु बीच न राखा, लक्ष्मण रामचरित सब भाखा।
कह सुग्रीव नयन भरि वारी, मिलिहि नाथ मिथिलेश कुमारी।
मंत्रिन्ह सहित इहाँ इक बारा, बैठ रहे| कछु करत विचारा।
गगन पंथ देखी मैं जाता, परबस परी बहुत बिलखाता ।।
राम राम हा राम पुकारी, मम दिशि देखि दीन्ह पट डारी।
माँगा राम तुरत सो दीन्हा, पट उर लाइ शोच अति कीन्हा।।
कह सुग्रीव सुनहु रघुवीरा, तजहु शोच उर आनहु धीरा।
सब प्रकार करिहैं सेवकाई, जेहि विधि मिलहिं जानकी आई।
सखा बचन सुनि हरणे, रघुपति करुणासीव।
कारण कवन बसहु वन, मोसन कहु सुग्रीव ॥
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लक्ष्मण जी ने सुग्रीव से प्रीति करके उनको सब बताया ,कुछ छुपाया नही।
सुग्रीव अपने नेत्रो में जल आ गया और वे बोले " हे नाथ! मिथिलेश कुमारी सीता जी मिल जाएंगी , एक बार मैं अपने मंत्रियों समेत यहाँ बैठ कर कुछ विचार कर रहा था तब मैंने आकाश मार्ग में मैंने देखा कि सीता जी बहुत रो रही थी , राम राम हा राम कह रही थी , तब उन्होंने (सीता जी) ने मुझे देखा और एक कपड़े का टुकड़ा डाला । तब श्रीरामचन्द्रजी ने वह माँगा तो सुग्रीव ने उन्हें वह दे दिया , उसको ले कर श्रीरामजी सोच करने लगे , तो सुग्रीव जी कहते है "हे धीर रघुवीर , सोच मत करिए ,हम लोग सब प्रकार से सेवा करेंगे , जिससे जानकी जी मिल जाये।
तब करुणासीव रघुनाथ जी ने सुग्रीव के वचन सुने और फिर सुग्रीव से पूछे " हे सुग्रीव तुम किस कारण से इस वन मैं रहते हो, मुझसे से बताओ"।।
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