अर्थव्यवस्था पर अंबेडकर के दर्शन
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प्रबुद्ध अर्थशास्त्र : आंबेडकर और उनकी आर्थिक दृष्टि
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बाबासाहेब आंबेडकर की आर्थिक दृष्टि को परिभाषित करने के लिए मैंने ‘प्रबुद्ध अर्थशास्त्र’ शब्द गढ़ा है। इसका उद्देश्य न केवल यूरोपीय ज्ञानोदय के मूल्यों – जो भारतीय संविधान के मूल्यों की नींव थे – के प्रति श्रद्धा व्यक्त करना है, वरन आंबेडकर के इन मूल्यों को, बुद्ध के ज्ञानोदय से जोड़ने के सफल प्रयास की याद दिलाना भी है।
आंबेडकर का दौर, देश और दुनिया में भारी उथल-पुथल का दौर था। आंबेडकर ने अपने जीवन में रूसी क्रांति, द्वितीय विश्वयुद्ध और भारत के औपनिवेशिक-विरोधी संघर्ष जैसी युगान्तरकारी घटनाओं को देखा। उन्होंने यह भी देखा कि किस प्रकार यूरोपीय ज्ञानोदय ने भारत के इतिहास, राजनीति और शासन कला को प्रभावित किया। आंबेडकर को उनके समकालीन दिग्गज अर्थशास्त्रियों, जिनमें सेलिगमेन और एडविन कानन शामिल थे, ने या तो पढ़ाया या वे उनसे प्रभावित हुए। इसी तरह उन्हें प्रसिद्ध दार्शनिक जॉन डयूई और जानेमाने मानवशास्त्री एलेक्जेंडर गोल्डनवाईजर के संपर्क में आने का मौका भी मिला। गोल्डनवाईजर ने उन्हें भारत में जातियों पर शोधप्रबंध लिखने और उसे प्रस्तुत करने के लिए प्रोत्साहित किया। यह शोधप्रबंध सन् 1917 में ‘एंटीक्योरी‘ में प्रकाशित हुआ।
आंबेडकर के ये शब्द एक तरह की भविष्यवाणी थेः ‘‘इतिहास हमें बताता है कि जब भी आर्थिक और नैतिक मुद्दों के बीच टकराव होता है, जीत हमेशा आर्थिक मुद्दों की होती है। निहित स्वार्थ कभी भी अपने हितों को नहीं त्यागते, जब तक कि उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर न कर दिया जाए।
आंबेडकर का अर्थशास्त्रः एक विवेचना : अर्थशास्त्र के इतिहास के लब्धप्रतिष्ठित प्राध्यापक अंबीराजन ने मद्रास विश्वविद्यालय में अपने आंबेडकर स्मृति व्याख्यान[i] में कहा था कि आंबेडकर उन पहले भारतीयों में से एक थे, जिन्होंने अर्थशास्त्र में औपचारिक शिक्षा पाई और एक पेशेवर की तरह ज्ञान की इस शाखा का अध्ययन और उपयोग किया। भारतीय अर्थशास्त्र की परंपरा प्राचीन है। भारत में सदियों पहले ‘अर्थशास्त्र‘, ‘शुक्रनीति‘ और ‘तिरूक्कुरल‘ जैसे ग्रंथ लिखे गए। पश्चिम में अर्थशास्त्र का औपचारिक शिक्षण, 19वीं सदी के मध्य से शुरू हुआ। भारत में आंबेडकर के काल में जो लोग अर्थशास्त्र पर लेखन करते थे वे आवश्यक रूप से अर्थशास्त्री नहीं हुआ करते थे। उनके लिए अर्थशास्त्र, मात्र उनके साध्य को पाने का साधन था। उदाहरण के लिए, दादाभाई नैरोजी जैसे भारतीय अध्येताओं के लेखन में अर्थशास्त्रीय संव्यवहारों का बहुत अच्छा विश्लेषण है और अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए जो सुझाव इसमें दिए गए, उनका प्रभाव समकालीन औपनिवेशिक शासकों और स्वाधीनता संग्राम के नेताओं दोनों पर पड़ा।
पूंजी वस्तु है, और श्रमिक व्यक्ति। पूंजी केवल होती है, श्रमिक जीते हैं। कहने का अर्थ यह कि पूंजी का यदि कोई उपयोग न किया जाता तो उससे कोई आमदनी नहीं होती परंतु उस पर कोई खर्च भी नहीं करना पड़ता। परंतु श्रमिक, चाहे वह कुछ कमाए या नहीं, उसे जीवित रहने के लिए स्वयं पर खर्च करना पड़ता है। यदि वह यह खर्च उत्पादन से नहीं निकाल पाता, जैसा कि होना चाहिए, तो वह लूटकर जिंदा रहता है…। हमें यह मानना ही होगा कि भारत में छोटी जोतों की समस्या, दरअसल, उसकी सामाजिक अर्थव्यवस्था की समस्या है…अगर हम इस समस्या का स्थायी हल चाहते हैं तो हमें मूल बीमारी का इलाज खोजना होगा। ऐसा करने के पहले हम यह दिखाएंगे कि हमारे देश की सामाजिक अर्थव्यवस्था, खराब क्यों है…किसी व्यक्ति की तरह, किसी समाज की आय दो चीजों पर निर्भर करती हैः (1) किए गए प्रयास व (2) संपत्ति के उपयोग। यह कहना गलत नहीं होगा कि किसी व्यक्ति या समाज की कुल आय या तो उसके द्वारा वर्तमान में किए जा रहे श्रम से आती है या उस उत्पादक संपत्ति से, जो उसके पास पहले से है। इस तरह यह स्पष्ट है कि हमारी कृषि-संबंधी समस्याओं की जड़ हमारी खराब सामाजिक अर्थव्यवस्था मंें है। भारत में छोटी जोतों की समस्या का हल, जोतों को बड़ा करना नहीं बल्कि पूंजी और पूंजीगत माल मंे वृद्धि करना है। पूंजी का निर्माण बचत से होता है और राजनीतिक अर्थशास्त्र से सभी विद्यार्थी जानते हैं कि अतिशेष उत्पादन के बिना बचत संभव नहीं है।
वे प्रासंगिक आंकड़ों का उपयोग कर यह सिद्ध करते हैं कि पूंजी और पूंजीगत माल की कमी ही निम्न उत्पादकता का कारण है। इसके बाद वे सभी उपलब्ध विकल्पों पर विचार करते हैं। इनमें चकबंदी, वर्तमान जोतों का संरक्षण और इसके उलट, जोतों को और छोटा होने से रोका जाना शामिल है। अंत में वे इस समस्या के लिए अपना इलाज प्रस्तावित करते हुए कहते हैं, ‘‘भारत की कृषि संबंधी समस्याओं को हल करने का सबसे अच्छा उपाय है औद्योगिकरण।‘‘ वे कहते हैं कि इससे अकार्यशील श्रम, अतिशेष उत्पादन का अभाव व कृषि भूमि पर दबाव की समस्याएं एक झटके में समाप्त हो जाएंगी और जोतों के और छोटे होते जाने की प्रक्रिया थम जाएगी। वे उन चन्द आर्थिक सिद्धांतकारों में से एक थे, जिनका आर्थिक नीतियों और योजनाओं के प्रति दृष्टिकोण व्यावहारिक और लोकहितकारी था। ‘सामाजिक अर्थव्यवस्था‘ पर उनका जोर, उन्हें आधुनिक आर्थिक चिंतकों में एक अनूठा स्थान प्रदान करता है।