अरावली और सतपुड़ा में पलाश के वृक्ष कैसे लगते थे
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आम आदमी से लेकर साधु-सन्यासियों को सम्मोहित करने वाला ‘पलाश’ का वृक्ष आज संकट में है। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि अगर इसी तरह पलाश के वृक्षों का विनाश जारी रहा तो पलाश यानी टेसू यानी ढाक ‘ढाक के तीन पात’ वाली कहावत में ही शेष बचेगा। अरावली, सतपुड़ा पर्वत श्रृंखलाओं में जब पलाश वृक्ष चैत (बसंत) में फूलते थे तो लगता था कि मीलों लम्बे पलाश वन में आग लग गई हो। स्वयं अग्नि देव फूलों के रूप में खिल उठे हों। खेतों की मेड़ों से लेकर पर्वतों तक अपना ध्वज फहराने वाला पलाश, एक-दो दिन में ही संकट में नहीं आ गया है। पिछले तीस-चालीस वर्षों में दोना-पत्तल बनाने वाले कारखानों के बढ़ने, गाँव-गाँव में चकबन्दी होने तथा वन माफियाओं द्वारा अन्धाधुन्ध कटान कराने के कारण उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, बंगाल, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, कर्नाटक, महाराष्ट्र आदि प्रान्तों में पलाश के वन घटकर दस प्रतिशत से भी कम रह गए हैं। वैज्ञानिकों ने पलाश वनों के बचाने के लिये ऊतक संवर्द्धन (टिश्यू कल्चर) द्वारा परखनली में पलाश के पौधों को विकसित कर एक अभियान चलाकर पलाश वन रोपने की योजना प्रस्तुत की है। हरियाणा तथा पुणे में ऐसी दो प्रयोगशालाएँ भी खोली हैं।