Political Science, asked by juvarambha, 2 months ago

अरस्तु का सुधारात्मक न्याय का उद्देश्य क्या है​

Answers

Answered by somya2563
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Explanation:

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समानता का आशय यह नहीं है कि व्यक्ति की पसंदों का ध्यान न रखा जाए. न्याय इसमें है कि प्रत्येक नागरिक को विकास के समान अवसर प्राप्त हों. इसके लिए अवसरों की समानता तथा किसी कारणवश विकास में पिछड़ चुके हैं नागरिकों को विशेष प्रोत्साहन देकर मुख्यधारा में लाने की कोशिश करते रहनाㅡन्याय और समाजीकरण दोनों की प्रथम कसौटी है.

न्याय की व्याख्या करते हुए अरस्तु उसके दोनों रूपों पर विचार करता है. पहला वह जिसके बारे में सामान्यजन सोचता है कि न्याय कानून के तत्वावधान में अदालतों के जरिये प्राप्त होता है. इसके साथ–साथ वह मनुष्य के आचरण एवं व्यवहार की व्याख्या करता है. न्याय का यह रूप नागरिक और राष्ट्र–राज्य के कानून के अंतर्संबंध को दर्शाता है. उन अनुबंधों की ओर इशारा करता है, जिनसे कोई नागरिक सभ्य समाज का नागरिक होने के नाते जन्म के साथ ही जुड़ जाता है. प्रकारांतर में वह बताता हे कि आदर्शोंन्मुखी समाज में मनुष्य का आचरण एवं कर्तव्य किस प्रकार के होने चाहिए, ताकि समाज में शांति, सुशासन और आदर्शोन्मुखता बनी रहे. प्रायः सभी समाजों में कानून को नकारात्मक ढंग से लिया जाता है. बात–बात पर कानून का हवाला देने वालीं, उसके अनुपालन में लगी शक्तियां प्रायः यह मान लेती हैं कि बुराई मानव–स्वभाव का स्थायी लक्षण है. जो बुरा है, उसे केवल दंड के माध्यम से बस में रखा जा सकता है. कि मानव–व्यक्तित्व पर आज भी अपने उन पूर्वजों के लक्षण शेष हैं जो कभी जंगलों में जानवरों के बीच रहा करते थे. कुछ व्यक्तियों में पाशविक वृत्ति ज्यादा प्रभावी होती है. ऐसे लोगों पर बल–प्रयोग उन्हें अनुशासित रखने का एकमात्र उपाय है. इसलिए सभ्यताकरण के आरंभ से ही दंड–विधान की व्यवस्था प्रत्येक समाज और संस्कृति में रही है. इसे पुष्ट करने के लिए धर्म और संस्कृति से जुड़े ऐसे अनेक किस्से हैं, जिनसे हमारा संस्कार बनता है. स्वर्ग–नर्क की कल्पना भी इसी का हिस्सा है. उनमें से अधिकांश पर विजेता संस्कृति का प्रभाव है. आधुनिक संदर्भों में वह भले ही लोकतंत्र और मानव–स्वातंत्र्य का विरोधी हो, प्राचीन इतिहास, धर्म और संस्कृति का हिस्सा होने के कारण उसे धरोहर के रूप में सहेजा जाता है.

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