असंतुलन विकास कि हानि एवं लाभ बताए
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i cant uderstand you pls make it english
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सरकारों की अलग-अलग जवाबदेही तय करने की बात लंबे अरसे से होती चली आ रही है। सैद्धांतिक रूप से देखें तो यह जवाबदेही लगभग तय है, लेकिन व्यवहार में इसका प्रभाव वह बिलकुल नहीं देखा जाता जो होना चाहिए। वे जवाबदेह हैं, लेकिन स्वयं अपने ही प्रति। सीधे जनता के प्रति उनकी जवाबदेही पांच साल में केवल एक बार बनती है और वह भी जाति-धर्म या भाषा-क्षेत्र के नाम चढ़ जाती है। इससे केवल जनता ही नहीं, कई राजनेता भी दुखी हैं। हाल ही में लुधियाना में हुए एक राज्य स्तरीय समारोह को संबोधित करते हुए पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने भी इस बात का जिक्र किया। केंद्र से राज्यों का वाजिब हक न मिलने को लेकर उन्होंने दुख और चिंता जताई। वह कहते हैं कि केंद्र की ओर से राज्यों को जारी होने वाले फंड के नियमों को बेहद पेचीदा बना दिया गया है। इस कारण उसे हासिल करने में बहुत समस्याएं झेलनी पड़ रही हैं। यह समस्या किसी एक प्रदेश की नहीं है। अगर देखा जाए तो देश का लगभग हर प्रदेश समय-समय पर यह बात उठाता रहता है। दूसरी तरफ केंद्र सरकार आम तौर पर इन सवालों का कोई जवाब ही नहीं देती।हमें यह बात भूलनी नहीं चाहिए कि भारत अपने मूल रूप में राज्यों का एक संघ है। शासन के विकेंद्रीकरण की व्यवस्था इसी उद्देश्य से बनाई गई है कि पूरे देश का सामाजिक-आर्थिक विकास संतुलित ढंग से किया जा सके। सबको अपना वाजिब हक मिल सके और कोई भी अपने-आपको वंचित महसूस न करने पाए। आज आजादी के छह दशक से अधिक समय बीत जाने के बाद भी राष्ट्रीय स्तर पर संतुलित विकास दिखाई नहीं देता है। कहीं खेती के लिए पर्याप्त सुविधाएं और संसाधन नहीं हैं, तो कहीं औद्योगीकरण नहीं हो सका है। कुछ प्रदेशों में शिक्षा का विकास नहीं हो सका है तो कुछ में रोजगार के साधन नहीं हैं। कहीं चिकित्सा सेवाओं का विकास नहीं किया जा सका है तो कहीं पेयजल की उपलब्धता सुनिश्चित नहीं कराई जा सकी है। कई इलाकों में तो आज तक सड़क और बिजली भी समस्या बनी हुई है। बुनियादी सुविधाओं के विकास के लिए इतना समय कम नहीं होता है। इन मसलों पर धन भी कम खर्च नहीं किया गया है। इसके बावजूद आम जनता अपनी मूलभूत समस्याओं से उबर नहीं सकी है।
यह संतुलित विकास न हो पाने का ही परिणाम है कि देश के कई प्रदेशों से रोजगार के लिए भारी संख्या में लोगों का पलायन हो रहा है। इसके चलते दूसरे राज्यों में आबादी का दबाव बढ़ रहा है। इस दबाव के अनुरूप जब वहां की बुनियादी सुविधाएं और संसाधन कम पड़ रहे हैं तो जिन प्रदेशों में संपन्न होने की संभावना है, वे भी मुश्किल में फंस जा रहे हैं। मौका देखकर स्वार्थी तत्व इसका उपयोग स्थानीय लोगों में विरोध भावना भड़काने में कर रहे हैं। इस तरह वे तो अपनी राजनीति की रोटियां सेंक रहे हैं, लेकिन यह स्थिति वैमनस्य की ओर ले जा रही है। जाति-धर्म और भाषा-क्षेत्र की राजनीति का परिणाम अराजकता के अलावा और कुछ भी होना नहीं है, यह जानते हुए भी अधिकतर राजनेता यही कर रहे हैं। नतीजा यह कि संतुलित विकास की तो बात ही छोड़ दें, विकास का मुद्दा ही राजनीति के मुख्य गलियारे में गौण होता चला जा रहा है। यह देश की आम जनता के लिए भयावह हताशा का कारण बन रहा है। आखिर यह स्थिति हमें कहां ले जाएगी और इसके परिणाम क्या होंगे? क्या इसका कोई समाधान है?संविधान निर्माताओं ने जब सत्ता के विकेंद्रीकरण की व्यवस्था दी थी तो इसके मूल में उनकी मंशा यही थी कि देश के शासन की छोटी से छोटी इकाई अपनी दिशा स्वयं तय कर सके। सैद्धांतिक तौर पर देखें तो कमोबेश यह व्यवस्था पूरे देश में लागू भी है। केंद्र से लेकर प्रदेशों, जिला परिषदों और गांव पंचायतों तक के चुनाव पूरे देश में लगभग समय से हो रहे हैं। सभी जगह अपने-अपने स्तर पर निकायों का गठन भी हो रहा है और वे अपने ढंग से अपना शासन चला भी रहे हैं।