अष्टादश-पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्॥ ॥1॥
सुखार्थिनः कुतो विद्या, विद्यार्थिनः कुतः सुखम्।
सुखार्थी वा त्यजेत् विद्या, विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम्॥
॥2॥
माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा॥ ॥3॥
नरस्याभरणं रूपं, रूपस्याभरणं गुणः।
गुणस्याभरणं ज्ञानं, ज्ञानस्याभरणं क्षमा॥ ॥4॥
अपि स्वर्णमय
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अष्टादश-पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्।।1।।
भावार्थ — महर्षि वेदव्यास में अष्टादश पुराण में दो महत्वपूर्ण बातें कही हैं। पहली बात .ये कि परोपकार करना अर्थात दूसरों के काम आना और उसकी सहायता करना इस संसार का सबसे बड़ा पुण्य होता है। दूसरी बात ये कि दूसरों को दुःख देना, किसी का दिल दुखाने से बढ़कर कोई और पाप इस संसार में नही है।
सुखार्थिनः कुतो विद्या, विद्यार्थिनः कुतः सुखम्।
सुखार्थी वा त्यजेत् विद्या, विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम्।।2।।
भावार्थ — सुख की कामना करने वाले को विद्या नही मिल पाती है और विद्या की कामना करने वाले को सुख अर्थात आराम नही मिल पाता क्योंकि विद्या पाने के लिये निरंतर परिश्रम करना पड़ता है। सुख की कामना करने वाले को विद्या का परित्याग कर देना पड़ता है, और विद्या की कामना करने वाले को सुख का परित्याग कर देना पड़ता है।
माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा।।3।।
भावार्थ — जो माता-पिता अपनी संतानों को विद्याध्ययन नही कराते अर्थात उनको पढ़ाते-लिखाते नही हैं वो अपनी संतान के सबसे बड़े शत्रु के समान हैं। क्योंकि इस जगत में पढ़े-लिखे का ही सम्मान होता है। अनपढ़ व्यक्ति का विद्वानों की सभा में कोई सम्मान नही होता। अनपढ़ व्यक्ति विद्वानों के बीच वैसा ही लगता है, जैसे कि हंसों के बीच बगुला।
नरस्याभरणं रूपं, रूपस्याभरणं गुणः।
गुणस्याभरणं ज्ञानं, ज्ञानस्याभरणं क्षमा।।4।।
भावार्थ — मनुष्य का आभूषण उसका रूप है, रूप का आभूषण गुण है, गुण का आभूषण ज्ञान है और ज्ञान का आभूषण क्षमा है। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य का रूपवान होना तभी सार्थक होता है जब उसके पास गुण, ज्ञान और क्षमा हो।
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