अट नहीं रही है
अट नहीं रही है
आभा फागुन की तन
सट नहीं रही है।
कहीं साँस लेते हो,
घर-घर भर देते हो,
उड़ने को नभ में तुम
पर-पर कर देते हो,
आँख हटाता हूँ तो
हट नहीं रही है।
पत्तों से लदी डाल
कहीं हरी, कहीं लाल,
कहीं पड़ी है उर में
मंद-गंध-पुष्प-माल,
पाट-पाट शोभा-श्री
पट नहीं रही है।
(2). कविता में से आठ जातिवाचक संज्ञा शब्द लिखिए-
(क)
(ख)
(ग)
(घ)
(ङ)
(च)
(छ)
(ज)
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क) आभा
ख) फागुन
ग) घर
घ) पत्ता
ड) गंध
च) पुष्प
छ) माला
ज) सोभा श्री
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