अतिश्योक्ति अलंकार की परिभाषा उदाहरण सहित लिखए।
16- महाकवि सूरदास ‘अथवा' गोस्वामी तुलसीदास की काव्यगत विशेषता
दुओं के आधार पर लिखिए -
1. दो रचनाएँ
2. भावपक्ष
4. साहित्य में स्थान
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जीवन-परिचय – महाकवि सूरदास हिन्दी-साहित्याकाश के सूर्य माने गये हैं। वे ब्रजभाषा के कवियों में बेजोड़ माने जाते हैं। अष्टछाप के कवियों के तो वे सिरमौर थे ही, कृष्णभक्त कवियों में भी उनकी समता का कोई दूसरा कवि दिखाई नहीं पड़ता। इनके जन्मकाल के विषय में मतभेद हैं। भारतीय विद्वानों की यह परम्परा रही है कि वे अपने नाम से नहीं, अपितु अपने काम से अमर होना चाहते हैं। यही कारण रहा है जिसके चलते भारतीय साहित्यकारों के जन्म से जुड़े हुए प्रसंग सदैव विवादास्पद रहे हैं। सूरदास जी का जन्म वैशाख शुक्ल षष्ठी, संवत् 1535( सन् 1478 ई०) को मथुरा-आगरा मार्ग पर स्थित रुनकता (रेणुका क्षेत्र) ग्राम में हुआ। कुछ विद्वान् इनका जन्म दिल्ली के निकट सीही नामक ग्राम में हुआ मानते हैं। ये सारस्वत ब्राह्मण रामदास के पुत्र थे। इनकी माता के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं है। ये जन्मान्ध थे या बाद में नेत्रहीन हुए, इस सम्बन्ध में भी विवाद हैं। इन्होंने प्रकृति के नाना व्यापारों, मानव-स्वभाव एवं चेष्टाओं आदि का जैसा सूक्ष्म व हृदयग्राही वर्णन किया है, उससे यह जान पड़ता है कि ये बाद में नेत्रहीन हुए।
आरम्भ से ही इनमें भगवद्भक्ति स्फुरित हुई। मथुरा के निकट गऊघाट पर ये भगवान् के विनय के पद गाते हुए निवास करते थे। यहीं इनकी महाप्रभु केल्लभाचार्य से भेंट हुई, जिन्होंने इनके सरस पद सुनकर इन्हें अपना शिष्य बनाया और गोवर्धन पर स्थित श्रीनाथजी के मन्दिर का मुख्य कीर्तनिया नियुक्त किया। यहीं इन्होंने श्रीमद्भागवत् में वर्णित कृष्णचरित्र का ललित पदों में गायन किया। महाप्रभु वल्लभाचार्य जी की भक्ति-सम्प्रदाय ‘पुष्टिमार्ग कहलाता है। एकमात्र भगवान् की कृपा पर ही निर्भरता को सिद्धान्तरूप में गृहीत करने के कारण यह पुष्टि सम्प्रदाय’ कहलाता है। गुरु के प्रति इनकी अगाध श्रद्धा थी। अन्त समय में इन्होंने अपने दीक्षागुरु महाप्रभु वल्लभाचार्य जी का स्मरण निम्नलिखित शब्दों में किया
श्री वल्लभाचार्य जी की मृत्यु के उपरान्त उनके पुत्र गोस्वामी बिट्ठलनाथ जी ने पुष्टिमार्ग के आठ सर्वश्रेष्ठ कवि एवं गायकों को लेकर अष्टछाप की स्थापना की। सूरदास का इनमें सबसे प्रमुख स्थान था। गोवर्धन के निकट पारसौली ग्राम में इनकी मृत्यु संवत् 1640(सन् 1583 ई०) में हुई। कहते हैं कि मृत्यु के समय इन्होंने यह पद गाकर प्राण त्यागे-‘खंजन नैन रूप रस माते।’
कृतियाँ – सूरदास की कीर्ति का मुख्य आधार उनका ‘सूरसागर’ ग्रन्थ है। इसके अतिरिक्त ‘सूरसारावली’ और ‘साहित्य लहरी‘ भी उनकी रचनाएँ मानी जाती हैं, यद्यपि कतिपय विद्वानों ने इनकी प्रामाणिकता में सन्देह प्रकट किया है। ‘सूरसागर’ में श्रीमद्भागवत’ के दशम स्कन्ध की कृष्णलीलाओं का विविध भाव-भंगिमाओं में गायन किया गया है।