अतिथि देवो भव पर व्यंग्य कविता
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अतिथि देवो भवअतिथि देवो भव ★★★★★
दो नन्हे मोती आँसू बनकर,
बिन बुलाये मेहमान की तरह,
कभी भी आ जाते हैं,
भिगो जाते हैं मेरी पलकों को।
और मैं कुछ कह भी नहीं पाती,
ना ही इनकी आवभगत कर पाती हूँ,
ना ही मना कर पाती हूँ।
मत आना फिर से तुम,
कैसे कह दूँ इनसे,
अतिथि देवो भव,
यह तो हमारी संस्कृति है, परम्परा है।
हाँ, स्वागत करुँगी इनका,
मुस्कुराकर,
कभी ख़ुशी में, कभी उदासी में,
जब शब्दों ने मेरा साथ छोड़ा।
तब मेरी मौन अभिव्यक्ति बनकर,
ये नन्हे मोती छलक आये,
गीली आँखों संग होंठ मुस्कुराए।
मन में जिजीविषा जागी,
ना बहना मत ए नन्हे आँसू,
हँसना ही ज़िंदगी है।
हँसाना ही ज़िंदगी है,
जी लो हँसकर,
ये पल फिर ना आये।
vaibhav92797:
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