Hindi, asked by pranjeer9123413511, 3 months ago

अतिथि यज्ञ का अर्थ बताइए ?​

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Answered by joinanu14
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Answer:

मनुष्य के आत्म-कल्याण के लिए हमारे ऋषियों ने जो अनेक प्रकार की साधनाएं बनाई हैं उनमें पंचयज्ञ का विशिष्ट स्थान है। इन पाँच यज्ञों के नाम हैं-ब्रह्म-यज्ञ, देव-यज्ञ, पितृ-यज्ञ, भूत-यज्ञ तथा नृयज्ञ अतिथि-यज्ञ। ये पाँचों प्रकार के यज्ञ सदा से भारतीय संस्कृति के गौरव की वस्तु रहे हैं। प्राचीन समय में प्रायः प्रत्येक हिन्दू परिवार में प्रतिदिन ये यज्ञ किये जाते थे। इनमें भी अतिथि-यज्ञ पर विशेष जोर दिया जाता था और अनेक लोगों का यह नियम रहता था कि वे बिना किसी अतिथि को खिलाये स्वयं भोजन नहीं करते थे। अतिथि यज्ञ से जहाँ हमारी आत्मा के भाव शुद्ध होते हैं वहाँ मानव समाज में सहानुभूति और सहयोग के भावों का उदय भी होता है और विचारपूर्वक देखा जाय तो इन गुणों के बिना मनुष्य अपने नाम को भी चरितार्थ नहीं कर सकता।

अतिथि-सत्कार एक यज्ञ है। यज्ञ का अर्थ है ऐसा कार्य जिसमें त्याग अथवा बलिदान की भावना निहित हो।

अतिथि यज्ञ द्वारा हमारे भीतर विश्व-कल्याण की भावना उत्पन्न होती है और 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के सिद्धान्त पर आचरण करने लगते हैं। इन यज्ञों से हमारे आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक अभावों का निवारण होता है। जो व्यक्ति इनका अपने जीवन में स्थान देते हैं उनका जीवन ही यज्ञमय हो जाता है। अर्थात् उनकी स्वार्थ-भावना नष्ट हो जाती है और वे कु भी कर्म करते हैं वह समाज की सेवा करने वाला अथवा परोपकार के निमित्त ही माना जाता है।

हमारे अनेक भाई यह कल्पना करते हैं कि केवल अग्नि में थोड़ी-सी सामग्री और घी डाल देना ही यज्ञ है। बहुत से यह समझते हैं कि किसी देवी-देवता के निमित्त होम करके किसी पशु का बलिदान कर देना ही यज्ञ है। ऐसे व्यक्ति समझते हैं कि इस प्रकार के यज्ञ से उनको स्वर्ग का अधिकार प्राप्त हो जायगा, अथवा वे साँसारिक वैभव पाने के योग्य बन जायेंगे पर यह ख्याल ठीक नहीं है। यज्ञ का वास्तविक अर्थ उसी शुभ कार्य से है जो किसी न किसी रूप में त्याग अथवा बलिदान द्वारा संसार के किसी अन्य प्राणी या दैवी अथवा भौतिक शक्ति के हित के निमित्त किया जाय। अपने स्वार्थ साधन अथवा ईर्ष्या-द्वेष की भावना से किये जाने वाले काम को कदापि 'यज्ञ' नहीं कहा जा सकता।

खेद है कि आजकल हमारे भाई इन यज्ञों के महत्व को भूल गये हैं और इनके नाम पर एकाध काम निर्जीव भाव से कर देते हैं। उदाहरण के लिए अनेक व्यक्ति भोजन करने से पहले थोड़ा-सा भोजन जमीन पर गिरा देते हैं और समझ लेते हैं कि हमने भूत-यज्ञ पूरा कर लिया। पर यह विधि तो भूतों के प्रति अपने कर्तव्य को प्रकट करने का एक संकेत मात्र है। वास्तव में भिन्न भिन्न भूतों के प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन तभी हो सकेगा जब समझ बूझकर उनकी आवश्यकताओं को पूरी करने की कोशिश की जायगी, उदाहरणार्थ, पशुओं का भली भाँति पालन-पोषण करना, उन पर दया तथा प्रेम का भाव दर्शाना, वनस्पतियों के विकास का समुचित प्रयत्न करना, वैसे ही अन्य अदृश्य भूतों के प्रति भी सद्भाव दर्शाना इत्यादि। यही अन्य यज्ञों के विषय में है। हमको उनका वास्तविक आशय समझकर परोपकार की बुद्धि से उनकी पूर्ति करनी चाहिए। इसमें कुछ भी संदेह नहीं कि अगर हम इन कार्यों को अटल श्रद्धा और दृढ़ विश्वास से करें तो हम देखेंगे कि आज भी भगवान उसी प्रकार हमारी सहायता को आ सकते हैं जिस प्रकार प्रह्लाद की सहायता को खंभा फाड़कर निकल आये थे, पर यह बात तभी होगी जब हमारा मन सच्चा हो जाय और हम प्राणी मात्र के साथ हृदय से प्रेम करने लगें। परमात्मा हमारे शुभ कर्मों से ही प्रसन्न होता है और अतिथि यज्ञ उन कर्मों में एक श्रेष्ठ कर्म है।

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