atal bihari vajpai ke mrutui ke samachar sunkar do logo ke bech samvad likiye
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कटाक्ष से आग-बबूला होते नेता. देश की राजनीति में यह सबकुछ नया नहीं है. बदलाव पहले ही आ चुका था. लेकिन इस बदलाव के बावजूद अटल बिहारी वाजपेयी हमारे बीच थे.
अटल जी बरसों से मौन थे. लेकिन उनकी मौन उपस्थिति भी हमेशा यह याद दिलाती रहती थी कि राजनीति अभद्र होने का नाम नहीं है. अशालीन हुए बिना भी तीखी से तीखी बात कही जा सकती है. विरोधी की कड़ी से कड़ी आलोचना करते वक्त भी अंदाज़ दोस्ताना हो सकता है. लोक-विमर्श का स्तर ही तय करता है कि लोकतंत्र कितना
अटल जी का जाना लोक-विमर्श की एक स्वस्थ और सुदीर्घ परंपरा का अवसान है. एक ऐसी परंपरा जिसमें तर्कपूर्ण स्तरीय संवाद था. विरोधी के प्रति गहरा सम्मान था. संसदीय और परंपरागत भारतीय मूल्यों के प्रति आदर था और सबसे बढ़कर एक अनोखे किस्म का हास्यबोध था. अटल जी हमेशा इन्ही परंपराओं और इसी हास्य बोध के साथ जिए.
मैं खुशनसीब हूं कि मुझे बतौर लेखक और पत्रकार अटल जी के सार्वजनिक जीवन को देखने का मौका मिला. लेकिन मैं यह दावा नहीं कर सकता कि मैं अटल जी को किसी आम भारतीय नागरिक से ज्यादा जानता हूं. सार्वजनिक पटल पर उनकी उपस्थिति ऐसी थी कि कोई भी उन्हें ठीक तरह से देख और समझ सकता था. अटल जी की राजनीति, उनका समावेशी स्वभाव और ज़बरदस्त भाषण कला पर बातें लगातार होती रहेंगी. मैं फिलहाल सिर्फ उनके हास्यबोध यानी सेंस ऑफ ह्यूमर पर बात करना चाहूंगा.
वन लाइनर के धनी अटल
उस जमाने में सिर्फ अखबार होते थे. रेडियो और नया-नवेला टेलीविजन दोनों सरकारी थे. तब शब्दों की बड़ी अहमियत हुआ करती थी. एक-दूसरे के मुंह से सुने गए किस्से लोग अरसे तक याद रखते और दोहराते थे. यह कहानी उसी जमाने में शुरू होती है. साल शायद 1981 था और मैं कोई सात-आठ साल का बच्चा था.
विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी हमारे शहर नहीं बल्कि हमारे मुहल्ले में आए थे. एक जनसभा थी, जिसमें ढेर सारे समर्थक और कार्यकर्ता थे. जनता पार्टी टूट चुकी थी. बीजेपी बन चुकी थी. भीड़ में किसी ने वाजपेयी से पूछा-'आखिर ढाई साल में क्यों गिर गई थी जनता पार्टी की सरकार?'
अटलजी ने जवाब दिया-
आपसी लड़ाई
कांग्रेस आई…
भीड़ ने खूब तालियां बजाईं. बड़ा हुआ तो मुझे उस वन लाइनर की अलंकारिता समझ में आई. उस समय कांग्रेस दरअसल इंदिरा कांग्रेस यानी कांग्रेस आई हुआ करती थी.
हर बात पर एक आशु कविता रच डालना अटलजी की फितरत थी. वे इसी संवाद शैली में अवाम से रू-ब-रू होते थे. आजादी के बाद से पढ़े-लिखे सुसंस्कृत नेताओं की इस देश में एक लंबी परंपरा रही है. लेकिन वाजपेयी शायद इकलौते ऐसे नेता थे, जिन्होंने जनता को भाषाई संस्कार दिए. एनडीए सरकार के मुखिया रहते हुए रूठे हुए गठबंधन साझीदारों पर टिप्पणी करते हुए `समता और ममता दोनों को मना लेंगे’ से लेकर `ना टायर्ड हूं ना रिटायर्ड हूं’ जैसे अटल बिहारी वाजपेयी के अनगिनत वन लाइनर ऐसे हैं जो लोगों को अभी तक याद हैं.
अटल जी बरसों से मौन थे. लेकिन उनकी मौन उपस्थिति भी हमेशा यह याद दिलाती रहती थी कि राजनीति अभद्र होने का नाम नहीं है. अशालीन हुए बिना भी तीखी से तीखी बात कही जा सकती है. विरोधी की कड़ी से कड़ी आलोचना करते वक्त भी अंदाज़ दोस्ताना हो सकता है. लोक-विमर्श का स्तर ही तय करता है कि लोकतंत्र कितना
अटल जी का जाना लोक-विमर्श की एक स्वस्थ और सुदीर्घ परंपरा का अवसान है. एक ऐसी परंपरा जिसमें तर्कपूर्ण स्तरीय संवाद था. विरोधी के प्रति गहरा सम्मान था. संसदीय और परंपरागत भारतीय मूल्यों के प्रति आदर था और सबसे बढ़कर एक अनोखे किस्म का हास्यबोध था. अटल जी हमेशा इन्ही परंपराओं और इसी हास्य बोध के साथ जिए.
मैं खुशनसीब हूं कि मुझे बतौर लेखक और पत्रकार अटल जी के सार्वजनिक जीवन को देखने का मौका मिला. लेकिन मैं यह दावा नहीं कर सकता कि मैं अटल जी को किसी आम भारतीय नागरिक से ज्यादा जानता हूं. सार्वजनिक पटल पर उनकी उपस्थिति ऐसी थी कि कोई भी उन्हें ठीक तरह से देख और समझ सकता था. अटल जी की राजनीति, उनका समावेशी स्वभाव और ज़बरदस्त भाषण कला पर बातें लगातार होती रहेंगी. मैं फिलहाल सिर्फ उनके हास्यबोध यानी सेंस ऑफ ह्यूमर पर बात करना चाहूंगा.
वन लाइनर के धनी अटल
उस जमाने में सिर्फ अखबार होते थे. रेडियो और नया-नवेला टेलीविजन दोनों सरकारी थे. तब शब्दों की बड़ी अहमियत हुआ करती थी. एक-दूसरे के मुंह से सुने गए किस्से लोग अरसे तक याद रखते और दोहराते थे. यह कहानी उसी जमाने में शुरू होती है. साल शायद 1981 था और मैं कोई सात-आठ साल का बच्चा था.
विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी हमारे शहर नहीं बल्कि हमारे मुहल्ले में आए थे. एक जनसभा थी, जिसमें ढेर सारे समर्थक और कार्यकर्ता थे. जनता पार्टी टूट चुकी थी. बीजेपी बन चुकी थी. भीड़ में किसी ने वाजपेयी से पूछा-'आखिर ढाई साल में क्यों गिर गई थी जनता पार्टी की सरकार?'
अटलजी ने जवाब दिया-
आपसी लड़ाई
कांग्रेस आई…
भीड़ ने खूब तालियां बजाईं. बड़ा हुआ तो मुझे उस वन लाइनर की अलंकारिता समझ में आई. उस समय कांग्रेस दरअसल इंदिरा कांग्रेस यानी कांग्रेस आई हुआ करती थी.
हर बात पर एक आशु कविता रच डालना अटलजी की फितरत थी. वे इसी संवाद शैली में अवाम से रू-ब-रू होते थे. आजादी के बाद से पढ़े-लिखे सुसंस्कृत नेताओं की इस देश में एक लंबी परंपरा रही है. लेकिन वाजपेयी शायद इकलौते ऐसे नेता थे, जिन्होंने जनता को भाषाई संस्कार दिए. एनडीए सरकार के मुखिया रहते हुए रूठे हुए गठबंधन साझीदारों पर टिप्पणी करते हुए `समता और ममता दोनों को मना लेंगे’ से लेकर `ना टायर्ड हूं ना रिटायर्ड हूं’ जैसे अटल बिहारी वाजपेयी के अनगिनत वन लाइनर ऐसे हैं जो लोगों को अभी तक याद हैं.
sonam826216:
hey
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