अथवा
तुम मनुष्य हो, अमित बुद्धि-बल-बिलसित जन्म तुम्हारा। क्या उद्देश्य रहित ही जग में, तुम कभी विचारा? बुरा ना मानो, एक
बार सोचो तुम अपने में मैं क्या कर्तव्य समाप्त कर लिया तुमने निजी जीवन में? जिस पर गिरकर उदर-टरी से तुमने जन्म
लिया है। जिसका खाकर अन्न, सुधा-सम् नीर, समीर पिया है। वह स्नेह की मूर्ति दयामयि माता तुल्य सही है। उसके प्रति
कर्तव्य तुम्हारा क्या कुछ शेष नहीं है? केवल अपने लिए सोचते, मौज भरे गाते हो। पीते, खाते, सोते, जगते, हँसते, सुख पाते हो।
जग से दूर, स्वार्थ- साधन ही सतत तुम्हारा यश है। सोचो, तुम्ही, कौन अग-जग में तुम सा स्वार्थ विवश है? पैदा कर जिस देश
जाति ने तुमको पाला-पोसा। किए हुए है-वह निज-हित को तुमसे बड़ा भरोसा। उससे होना उऋण प्रथम है सत्कर्तव्य तुम्हारा।
फिर दे सकते हो वसुधा को शेष स्वजीवन सारा।
1) मातृभूमि से मनुष्य क्या-क्या प्राप्त करता है।
2) काव्यांश में धरती की तुलना किससे की गई है?
3) काव्यांश में मनुष्य की किस प्रवृत्ति पर प्रकाश डाला गया है?
4) कवि के अनुसार मनुष्य का प्रथम कर्तव्य क्या होना चाहिए?
5) काव्यांश का मुख्य संदेश क्या है?
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मातृभूमि से मनुष्य क्या क्या प्राप्त करता है
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