अधोलिखित-पद्यस्य अनुवादं कुरुत।
A) आत्मदुर्व्यवहारस्य फलं भवति दु:खदम्।तस्मात् सद्व्यवहर्तव्यं मानवेन सुखैषिणा॥ B) पिबन्ति पवनं जलं सन्ततम्।साधुजना इव सर्वे वृक्षा:॥
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Explanation:
वर्तमान युग का इंसान बिना विशेष परिश्रम के ऐहलौकिक और पारलौकिक फलों की प्राप्ति करना चाहता है, किंतु इसके लिए उनके पास न समय है और न ही उचित मार्गदर्शन। ऐसे लोगों के लिए श्रीमद्भागवत का पठन-श्रवण सरलतम मार्ग है।
जो प्राचीन होकर भी नित्य-नवीन है, वह 'पुराण' है। पुराण सनातन धर्म का प्राण तथा वेदों के समान अनादि और अपौरुषेय हैं।
अठारह पुराणों के उपवन में श्रीमद् भागवत कल्पतरु की भांति शोभायमान है। बारह स्कंध तथा अठारह हजार श्लोकों वाले यह पुराण ज्ञान का अक्षय भंडारतथा विद्वता की कसौटी है।
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भागवत महिमा- भागवत कथा वेद- उपनिषदें के सार से बनी है। इसलिए उनसे अलग उनकी फलरूप होने के कारण उत्तम है। जिस प्रकार रस पेड़ की जड़ से लेकर शाखा तक व्याप्त रहता है, किंतु इस स्थिति में उसका आस्वादन नहीं किया जा सकता। वही रस जब अलग होकर फल के रूप में आता है तब सभी को प्रिय लगता है।
जब तक शरीर में चेतना रहे तब तक बार-बार इसका पान करें-
' निगमकल्पतरोर्गलितं फलं, शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम्।
पिबत भागवतं रसमालयं,
मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः॥ 6.80
इस पुराण में कहा गया है कि भागवत वेदरूपी कल्पवृक्ष का परिपक्व फल है। शुकदेव रूपी शुक के मुख का संयोग होने से अमृत रस से परिपूर्ण है। यह रस ही रस है। इसमें न छिलका है, न गुठली। यह इसी लोक में सुलभ है।