अधोलिखितश्लोकयोः भावं समुचितपदैः पूरयत-
कथितम्, अस्त्रस्वरूपाः, दन्दंष्ट्राभ्याम्, विचाराभिव्यक्तये अतिध्यानेन, परमावश्यकम्।
(क)व्याघ्री यथा हरेत्पुत्रान्दन्ताभ्यां न तु पीडयेत्
भीतापतनभेदाभ्यां तद्वद्वर्णान् प्रयोजयेत्।।
भाव:- कस्यापि भाषायाः यदि उच्चारणं लेखनं वा सम्यक् न क्रियते तदा श्रोता,
पाठक: वा सम्यगर्थमवगन्तुं न पारयति।। अतः सम्यगुच्चारणं सम्यक् लेखनं च"
...........इदं भावमेवाधिकृत्य पाणिनिशिक्षायाः अस्मिन् श्लोके..........
यत् यथा व्याघ्री पतनभेदाभ्यां भीता पुत्रान् ......हरति परं एतावद्ध्यानेन
येन शावकेषु दन्ताभ्याम् आक्रमणं तु सर्वथा न भवति यद्यपि व्याघ्रया: दन्ताः एव
तस्याः..........।एवमेव वर्णानां प्रयोगकर्ता अपि वर्णप्रयोग:.........एव कर्तव्यः।
नेत्रहीनस्य, वर्णोच्चाणम्, पाणिनये, ज्ञानरूपिणा, पाणिनीय शिक्षा, सूत्ररचनाऽपि
उद्घाटितम्।
Answers
भाव:-
कस्यापि भाषायाः यदि उच्चारणं लेखनं वा सम्यक् न क्रियते तदा श्रोता, पाठक: वा सम्यगर्थमवगन्तुं न पारयति।। अतः सम्यगुच्चारणं सम्यक् लेखनं च परमावश्यकम् इदं भावमेवाधिकृत्य पाणिनिशिक्षायाः अस्मिन् श्लोके कथितम् यत् यथा व्याघ्री पतनभेदाभ्यां भीता पुत्रान् दन्दंष्ट्राभ्याम् हरति परं एतावद्ध्यानेन येन शावकेषु दन्ताभ्याम् आक्रमणं तु सर्वथा न भवति यद्यपि व्याघ्रया: दन्ताः एव तस्याः अस्त्रस्वरूपाः। एवमेव वर्णानां प्रयोगकर्ता अपि वर्णप्रयोग: विचाराभिव्यक्तये अतिध्यानेन एव कर्तव्यः।
अतिरिक्त जानकारी :
प्रस्तुत प्रश्न पाठ अथ शिक्षा प्रवक्ष्यामि (अब शिक्षा का प्रवचन करता हूँ) से लिया गया है। वेदों का ज्ञान प्राप्त करने, उसको सुरक्षित रखने और इस परंपरा को संपन्न बनाए रखने के लिए वेद के अंगों की खास जगह है।
वेदों के छ: अंग ये हैं-1. शिक्षा, 2. कल्प, 3. व्याकरण, 4. निरुक्त, 5. छंद और 6. ज्योतिष। इन छ: अंगों की जानकारी वेदों की अच्छी जानकारी के लिए बहुत ज़रूरी है। इन अंगों में 'शिक्षा' का पहला स्थान है। जैसा कि कहा गया है- शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य' अर्थात् 'वेदपुरुष की नाक शिक्षा है।' आमतौर पर 'शिक्षा' शब्द 'शिक्ष' धातु से बना माना जाता शिक्ष्यतेऽनया सा शिक्षा' यानी जिससे शिक्षित किया जाता है, वह शिक्षा है। लेकिन यहाँ शिक्षा शब्द 'शक्' धातु के सन्नन्त रूप 'शक्तुम् इच्छा इति' मानना चाहिये। यानी सामर्थ्य को पाने की इच्छा के अर्थ में। इस 'शिक्षा' वेदांग में मुख्य रूप से अक्षरों के उच्चारण आदि का वर्णन किया गया है। इनका ज्ञान पाने के बाद ही वेदों का अध्ययन-पठन-मनन संभव होता है। इसलिए पाणिनी के व्याकरणशास्त्र का पूरक शिक्षाग्रंथ है। शायद आचार्य पिंगल द्वारा लिखित 'पाणिनीय शिक्षा' सर्वप्रामाणिक पुस्तक है। इसके अध्ययन से वेदों की परंपरा को आगे बढ़ाया जा सकता है, उसे रक्षित किया जा सकता है।
इस पाठ से संबंधित कुछ और प्रश्न :
अधोलिखितप्रश्नानाम् उत्तराणि एकपदेन लिखत-
(क) नासिका अनुस्वारयमानां च किमुच्यते?
(ख) ऊष्मण: गतिः कतिविधा?
(ग) वेदस्य मुखं कि स्मृतम्?
(घ) अज्ञानान्धस्य लोकस्य चक्षुः पाणिनिना कया उन्मीलितम्?
(ङ) निरुक्तं वेदस्य किमुच्यते?
(च) पुत्रान् हरन्ती व्याघ्री तान् काभ्यां न पीडये?
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श्लोकान्वयं समुचितपदैः पूरयत-
(क) त्रिषष्टिश्चतुःषष्टिर्वा वर्णाः शम्भुमते मताः।
प्राकृते संस्कृते चापि स्वयं प्रोक्ताः स्वयंभुवा।।
अन्वयः- शम्भमते प्राकते...................चापि त्रिषष्टिः.............वा वर्णा:
स्वयंभुवा ........प्रोक्ता:.............(च)
(ख) येनाक्षरसमाम्नायमधिगम्य महेश्वरात्।
कृत्स्नं व्याकरणं प्रोक्तं तस्मै पाणिनये नमः।
अन्वयः- येन महेश्वरात्...............अधिगम्य कृत्स्नं ..........प्रोक्तं .........पाणिनये.......।
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