autobiography of a chair in hindi
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मेरा जन्म इस रूप में नहीं हुआ था, जिस रूप में तुम मुझे देख रहे हो । मेरा जन्म महाराष्ट्र राज्य में स्थित नागपुर के पास एक जंगल में हुआ था । प्रकृति की गोद में जन्म लेकर मैं फला-फूला । मेरी मां शीशम का एक वृक्ष थी । यह एक बड़ा विशाल और शकितशाली वृक्ष था ।
दसियों वर्ष तक मैं मां की गोद से चिपको और सुन्दर हरी-हरी पत्तियों से लदी एक शाखा के रूप में बड़ा होने लगा । शीतल पवन के झोके और वर्षा से मैं नाच उठता था । हवा के झोंकों पर मैं झूलता-मुस्कराता हुआ अपने भाग्य पर ईर्ष्या करता रहा ।
मुझे स्वप्न मैं भी यह ख्याल न आया कि भविष्य में मुझे पर कोई संकट आ सकता है अथवा मां की गोद से मुझे कोई छीन सकता है । अब मैं खूब मोटी-ताजी शाखा के रूप में जवान हो गया था और जवानी पर फूला नहीं समाता था । मेरा जीवन बड़ा शान्त और खुशहाल था ।
एक दिन लकड़हारा जंगल में आया । वह मेरी मां की शीतल छाया में विश्राम करने लगा । थोड़ी ही देर में उसकी नजर मुझ पर पडी । उसने मेरी लम्बाई-चौड़ाई देखकर मेरी ओर बड़ी ललचाई निगाहो से देखा । मुझे उसकी दृष्टि से भय लगने लगा ।
उस दिन तो वह लौट गया, पर अगले ही दिन रस्सी व एक बड़ी कुल्हाड़ी लिए फिर वहीं आ धमका । मुझे उसके इरादे अच्छे नहीं दिखे । उसने मेरे ऊपर रस्सी फेंकी और कस कर बाँध दिया । मैं दर्द से कराह उठा । मेरे नजदीक आकर उसने कुल्हाडी का एक भरपूर वार मुझ पर किया । मैं चीख उठा, लेकिन उसने कोई परवाह नहीं की । लगातार चोट-पर-चोट करता रहा ।
लकड़हारा मुझे अपने घर ले आया । वही मेरे अनेक साथी पहले से पड़े थे । उसने मुझे भी उसी ढ़ेर पर ला पटका । हम सब एक-दूसरे का हालचाल पूछने लगे । सभी की लगभग एक जैसी दास्तान थी । हम सब एक-दूसरे का दर्द बांटते वहीं धूप सें पड़े रहे ।
धीरे-धीरे हम सूखने लगे । कुछ दिन के बाद एक बढ़ई आया और उसने उस सारे ढ़ेर को लकड़हारे से खरीद लिया । बढई ने हमें एक बैलगाड़ी में लादा और अपने घर ले गया ।
बढ़ई ने हमें बैलगाड़ी से उतार कर एक कमरे में सम्भाल कर रख दिया । उसने आकार के हिसाब से हमें अलग-अलग स्थान पर रखा । बढ़ई के पास मुझे तरह-तरह के औजार दिखाई दिए । उसने आरे से हमें चीर कर अलग-अलग आकार प्रदान किया । कटते समय मुझे फिर बड़ी पीड़ा हुई लेकिन लकडहारे की निर्दय कुल्हाड़ी की पीड़ा के सामने यह कुछ भी न थी ।
इसके बाद रेगमाल से रगड़-रगड़ कर मेरा रूप निखारा और एक कोने में खड़ा कर दिया । दूसरे दिन मुझ पर पॉलिश की गई । अब मैं खूब चमकने लगा । मुझे अपने रूप पर बड़ गर्व हुआ और सोचने लगा कि बिना तकलीफ उठाये अच्छा आकार नहीं पाया जा सकता । मैं सारी पीड़ा भूलकर अपने भाग्य पर इतराने लगा ।
अगले दिन बढ़ई मुझे एक फर्नीचर वाले को बेच आया । यही मेरी खूब खातिरदारी हुई । कई दिन तक रोज मेरी झाड़-पोंच होती रही । एक दिन तुम्हारे प्रिंसिपल महोदय दुकान पर आए और मुझे पसन्द करके खरीद कर ले गए । प्रिंसिपल साहब ने मुझे अपने कमरे में रखवा लिया ।
Hope it'll help u riya...
Thank you...
दसियों वर्ष तक मैं मां की गोद से चिपको और सुन्दर हरी-हरी पत्तियों से लदी एक शाखा के रूप में बड़ा होने लगा । शीतल पवन के झोके और वर्षा से मैं नाच उठता था । हवा के झोंकों पर मैं झूलता-मुस्कराता हुआ अपने भाग्य पर ईर्ष्या करता रहा ।
मुझे स्वप्न मैं भी यह ख्याल न आया कि भविष्य में मुझे पर कोई संकट आ सकता है अथवा मां की गोद से मुझे कोई छीन सकता है । अब मैं खूब मोटी-ताजी शाखा के रूप में जवान हो गया था और जवानी पर फूला नहीं समाता था । मेरा जीवन बड़ा शान्त और खुशहाल था ।
एक दिन लकड़हारा जंगल में आया । वह मेरी मां की शीतल छाया में विश्राम करने लगा । थोड़ी ही देर में उसकी नजर मुझ पर पडी । उसने मेरी लम्बाई-चौड़ाई देखकर मेरी ओर बड़ी ललचाई निगाहो से देखा । मुझे उसकी दृष्टि से भय लगने लगा ।
उस दिन तो वह लौट गया, पर अगले ही दिन रस्सी व एक बड़ी कुल्हाड़ी लिए फिर वहीं आ धमका । मुझे उसके इरादे अच्छे नहीं दिखे । उसने मेरे ऊपर रस्सी फेंकी और कस कर बाँध दिया । मैं दर्द से कराह उठा । मेरे नजदीक आकर उसने कुल्हाडी का एक भरपूर वार मुझ पर किया । मैं चीख उठा, लेकिन उसने कोई परवाह नहीं की । लगातार चोट-पर-चोट करता रहा ।
लकड़हारा मुझे अपने घर ले आया । वही मेरे अनेक साथी पहले से पड़े थे । उसने मुझे भी उसी ढ़ेर पर ला पटका । हम सब एक-दूसरे का हालचाल पूछने लगे । सभी की लगभग एक जैसी दास्तान थी । हम सब एक-दूसरे का दर्द बांटते वहीं धूप सें पड़े रहे ।
धीरे-धीरे हम सूखने लगे । कुछ दिन के बाद एक बढ़ई आया और उसने उस सारे ढ़ेर को लकड़हारे से खरीद लिया । बढई ने हमें एक बैलगाड़ी में लादा और अपने घर ले गया ।
बढ़ई ने हमें बैलगाड़ी से उतार कर एक कमरे में सम्भाल कर रख दिया । उसने आकार के हिसाब से हमें अलग-अलग स्थान पर रखा । बढ़ई के पास मुझे तरह-तरह के औजार दिखाई दिए । उसने आरे से हमें चीर कर अलग-अलग आकार प्रदान किया । कटते समय मुझे फिर बड़ी पीड़ा हुई लेकिन लकडहारे की निर्दय कुल्हाड़ी की पीड़ा के सामने यह कुछ भी न थी ।
इसके बाद रेगमाल से रगड़-रगड़ कर मेरा रूप निखारा और एक कोने में खड़ा कर दिया । दूसरे दिन मुझ पर पॉलिश की गई । अब मैं खूब चमकने लगा । मुझे अपने रूप पर बड़ गर्व हुआ और सोचने लगा कि बिना तकलीफ उठाये अच्छा आकार नहीं पाया जा सकता । मैं सारी पीड़ा भूलकर अपने भाग्य पर इतराने लगा ।
अगले दिन बढ़ई मुझे एक फर्नीचर वाले को बेच आया । यही मेरी खूब खातिरदारी हुई । कई दिन तक रोज मेरी झाड़-पोंच होती रही । एक दिन तुम्हारे प्रिंसिपल महोदय दुकान पर आए और मुझे पसन्द करके खरीद कर ले गए । प्रिंसिपल साहब ने मुझे अपने कमरे में रखवा लिया ।
Hope it'll help u riya...
Thank you...
Riya112233:
no i don't....do u..
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