Hindi, asked by karmakarkeshab549, 5 months ago

autobiography of dry river
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Answered by nivritipassi2005
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सूख गईं नदियाँ, रह गईं तो बस कहानियाँ

दम तोड़तीं नदियाँगर्मी ने दस्तक दिया नहीं कि जल संकट की खबरें आम हो जाती हैं। पर मध्य-प्रदेश के सतपुड़ा व अन्य इलाकों की स्थिति कुछ अलग है। यहाँ पानी की किल्लत मौसमी न रहकर स्थायी हो गई है। ज्यादातर नदियां सूख गई हैं। नरसिंहपुर और होशंगाबाद जिले की, सींगरी, बारूरेवा, शक्कर, दुधी, ओल, आंजन, कोरनी, मछवासा जैसी नदियां पूरी तरह सूख गई हैं। इनमें से ज्यादातर बारहमासी नदियां थीं। पीने के पानी से लेकर फसलों के लिए भी पानी का संकट बढ़ गया है।

इस समस्या पर लेखक की पैनी नज़र तब पड़ी, जब पिछले दिनों वे ट्रेन में सफर कर रहे थे। सफर के दौरान ट्रेन में एक सज्जन मिले। जब गाड़ी गाडरवारा की शक्कर नदी के पुल से गुजरी कि उन्होंने आपबीती सुनानी शुरु कर दी। वे बताने लगे कि कैसे इस नदी में वे डूबते-डूबते बचे थे। बतौर सज्जन, नदी गहरी और पानी से भरी थी, वे लगभग डूब ही गए थे कि कुछ लोगों ने उन्हें उनके बालों को पकड़कर निकाला। उनके कहने का निहितार्थ था, जिस नदी में अब पानी की एक बून्द तक नहीं दिखती,पहले पानी से लबा-लब हुआ करती थी। अब सूखकर, खुक्क ( खाली) हो गई है।

नदी की रेत में डंगरबाड़ी (तरबूज-खरबूज) की खेती होती थी और कहार, बरौआ समुदाय के लोगों का डेरा नदी इलाकों में होता था। यहां की मीठी ककड़ी याद आती है।

सतपुड़ा से निकलने वाली नर्मदा की सहायक नदियां- बारूरेवा, शक्कर, दुधी, ओल, आंजन,कोरनी, मछवासा, पलकमती आदि का अस्तित्व केवल अब बरसाती नदियों के रूप में रहा गया है जो कभी सदानीरा हुआ करतीं थीं।

नदियों से जुड़ाव की मात्र यही कहानी नहीं, ऐसी बहुत सी कहानियां हैं, उनके तटों ताल्लुक रखने वालों के पास। मछवासा नदी के पास रहने वाली एक महिला,अपने आँगन में खड़े अमरूद और आम के पेड़ों का,अपने पति और उनके नदी से लगाव का मार्मिक विवरण प्रस्तुत करती है। वह कहती है कि उन पेड़ों को उसके पति (जो अब इस दुनियां में नहीं हैं)ने नदी के पानी से सींचा था। नदी तो अब रही नहीं लेकिन पेड़ उसे उसके पति की याद जरूर दिलाते रहते हैं।

नदियों की यह हालत अचानक नहीं हुई है। पर्यावरणीय विनाश अपना असर दिखाने लगा है। सैकड़ों सालों से सदानीरा नदियां, झील, झरने, कुएं और बावडियां सूख गई हैं या सूखने के कगार पर हैं। इसके कारण मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी से लेकर समस्त जीव-जगत के लिए पानी की समस्या हो गयी है।

मध्य-प्रदेश की बात करें तो यहां विपुल वन संपदा थी। गांवों में कुआं हुआ करते थे। तालाब हुआ करते थे। नदियां पूरे बारहमासी बहती थीं। गांवों के आसपास घने जंगल व डांगें हुआ करती थी। नदियां व झरने कल-कल बहते रहते थे। नदियों के किनारे ही सभ्यताएं विकसित हुई हैं। कला, संस्कृति का विकास हुआ है। लेकिन पानी के आभाव में इन इलाकों से लोगों ने पलायन करना शुरू कर दिया।

शहरों के विस्तार के कारण भी पानी का दोहन हो रहा है। भवन निर्माण, बागवानी हो या रोजमर्रा के कार्य सभी के लिए पानी की जरुरत है। पानी शहरों में तो होता नहीं तो वहां इसकी आपूर्ति के लिए आस-पास के नहरों और दूसरे जल स्रोतों का अति दोहन हो रहा, जो पानी की किल्लत का कारण बन रहा है।

जलवायु बदलाव चिंता का विषय है। इसका असर वर्षा के पैटर्न पर भी पड़ा है। आजकल बारिश या तो होती नहीं है और होती भी है तो कम। यानी मौसम की अनिश्चितता बनी रहती है। ऐसे में हमें तात्कालिक नहीं, पानी की समस्या के स्थायी समाधान की ओर बढ़ना होगा। अब सवाल है कि क्या किया जाए? पानी की कमी के कारण सतपुड़ा अंचल में किसानों ने गेहूं की जगह चना की खेती की है। बड़ी संख्या में किसान इस ओर मुड़े हैं। चना बिना सींच( सिंचाई) के बोया जाता है। सतपुड़ा के पहाड़ी इलाके में भी चना बोया जाता है। मैदानी इलाकों में कम पानी वाला चना बोया जाता है। उसमें एक या दो बार पानी देने की जरूरत होती है जबकि गेहूं में ज्यादा बार। इसी तरह तुअर, तिल, मूंग, उड़द, तिवड़ा आदि कई प्रकार की दालें बोई जाती हैं। हम दाल के प्रमुख उत्पादक देश थे। उन्हें बोना छोड़कर ज्यादा पानी वाली फसलें बोने लगे। सतपुड़ा की जंगल पट्टी में किसान परंपरागत मिश्रित खेती की पद्धति पर उतेरा। इसमें 6-7 प्रकार के अनाजों को मिलाकर बोया जाता है। इस पद्धति में ज्वार, धान, तिल्ली, तुअर, समा, कोदो मिलाकर बोते हैं। सभी बारिश की खरीफ फसलें हैं। इनमें अलग से पानी की जरूरत नहीं होती है।

इसके अलावा, हमें परंपरागत सिंचाई की ओर भी ध्यान देना चाहिए। उस समय जरूरतों व संसाधनों के बीच तालमेल बिठाते हुए सिंचाई के कई साधन विकसित किए गए थे। जिसके तहत तालाब, कुएं, नदी-नालों का बहाव को मोड़ कर खेतों तक पानी ले जाया जाता था। सतपुड़ा अंचल में ही पहाड़ी नदियों से कच्ची नाली बनाकर खेतों की सिंचाई की जाती थी। इसी अंचल में हवेली ( बंधिया) पद्धति प्रचलित थी, जिसमें खेतों में बंधिया( मेड़) बनाकर पानी भरा जाता है जिससे लंबे अरसे तक खेत में नमी रहती है। इसी प्रकार छत्तीसगढ़ में टेढ़ा पद्धति से सब्जी बाड़ी की सिंचाई की जाती है, जिसमें बहुत ही कम पानी लगता है। छत्तीसगढ़ में ही सैकड़ों की संख्या में तालाब हैं जिनमें बारिश का पानी तालाब लबा-लब भरा रहता है। तालाबों के महत्व को अनुपम मिश्र ने अपने लेखों व किताबों में बहुत ही स्पष्ट तरीके से बताया है। यानी पानी संचयन के परंपरागत तौर-तरीकों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है।

कुल मिलाकर, हमें पानी के परंपरागत स्रोतों को फिर से बहाल करना होगा। देसी बीजों वाली परंपरागत खेती,असिंचित मिश्रित खेती की ओर बढ़ना होगा। वृक्ष खेती या कम से कम मेड़ों पर फलदार पेड़ों को लगाना होगा, जिससे खेतों में नमी कुपोषण कम नदियों के किनारे वनाच्छादन,छोटे स्टॉपडैम और पहाड़ियों पर हरियाली वापिसी के लिए उपाए करने होंगे। मिट्टी-पानी और पर्यावरण का संरक्षण करना होगा तभी हम पानी के संकट के स्थायी समाधान कर पाएंगे।

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