Hindi, asked by ShampaMandal, 1 year ago

autobiography of river in Hindi​

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Answered by yuvrajrathore
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Answer:

मुझे कई अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है, जैसे : नहर, सरिता, प्रवाहिनी, तटिनी, आदि। मैं मुख्यतः स्वभाव से चंचल हूं, पर कभी-कभी मद्धम भी हो जाती हूं।  कल-कल करके बहती ही रहती हूं, निरंतर – बिना रुके, बिना अटके, बस चलती ही रहती हूं। मेरा जन्म पर्वतों में हुआ और वहां से झरनों के रूप में मैं आगे बढ़ती हूं और फिर बहते बहते बस सागर में जा मिलती हूं।

 

मेरा बहाव कभी तेज, तो कभी कभी धीमा होता है। मैं स्थान अनुसार कभी संक्री, तो कभी चौड़ी हो जाती हूं। मेरे रास्ते में बहुत अड़चनें, बहुत रुकावट आती है; कभी पत्थर, कभी कंकर, कभी चट्टान – पर मैं कभी ठहरती नहीं हूं – अपना रास्ता बनाते चलती रहती हूं, झर झर बहती रहती हूं।

मनुष्य मुझसे अनेकों प्रकार से जुड़ा हुआ है,  या यूं कहूँ के मैं मनुष्य के लिए अति उपयोगी हूँ। मनुष्य के लिए मेरे क्या क्या उपयोग हैं ? चूंकि मेरे भीतर जीव जंतु पाए जाते हैं इसलिए मैं मनुष्य के लिए भोजन का स्त्रोत हूं, मैं ना जाने कितने ही लोगों का पेट भरती हूं। मेरे ही कारण सभी के घरों में पीने के पानी की सुविधा उपलब्ध हो पाती है अथवा उस पानी से मनुष्य अपने अनगिनत कार्यों को निपटाता है।

मैं पर्यावरण में पारितंत्र का संतुलन भी बनाए रखती हूं। मेरे ही पानी द्वारा मनुष्य अपने उपयोग के लिए बिजली उत्पन्न करता है और उस बिजली से मशीनरी के ढेरों काम होते हैं। मेरे नीर से ही खेतों की सिंचाई भी होती है, जिसके कारण फसलों में जान आती है एवं अनाज लहलहाने लगता है, बागों में लगे पेड़ फलों से लद जाते हैं।

मैं किसी एक क्षेत्र, एक राज्य या किसी एक देश से बंधी हुई नहीं हूं। मुझे कोई सरहद रोक नहीं सकती है। मैं बस पाई जाती हूं, मैं बस हूं, मौजूद हूं – हर जगह, हर क्षेत्र, राज्य, देश में – अलग-अलग रूपों में, भिन्न-भिन्न प्रकार से, विभिन्न नामों के साथ।

मेरे अस्तित्व को अगर देखा जाए, तो मेरे भीतर भी भावनाएं है, एहसास है; पर मैं कभी कह नहीं पाती, चुप हूं क्योंकि शायद प्रकृति, जो कि मेरी माँ है, का यही नियम है। प्रकृति बहुत कुछ, बहुत से भी ज्यादा कुछ देती है, परंतु मूक रहती है, उन चीजों का कभी हिसाब नहीं लेती। परंतु मुझे इस संदर्भ में तकलीफ महसूस होती है, मेरे भी एहसास है, मुझे भी दुख-सुख महसूस होता है।

मनुष्य मुझे मुख्यतः प्रलोभी जान पड़ता है, बस अपना स्वार्थ पूरा करने हेतु किसी भी हद तक जा सकता है। मेरे इस मत का क्या कारण है, मैं आपको एक उदाहरण देकर बताती हूँ। मनुष्य द्वारा मुझे देवी के रूप में पूजा जाता है, मेरी पूजा अर्चना की जाती है, लोग मन्नत मांगते हैं, इच्छा पूरी करने के लिए व्रत रखते हैं, फूल चढ़ाते हैं; फिर वहीं दूसरी ओर मुझ में गंदगी डालते हैं, मुझे प्रदूषित करते हैं। अब बताइए भला देवी को कोई मैला करता है क्या ! बस यहीं पर मनुष्य के दोहरे मानक सामने आ जाते हैं, अगर मुझे सच्चे मन से देवी मानते, तो मुझ में कभी भी कूड़ा ना डालते।

आज परिस्थितियां यह है कि नदियों का पानी अत्यंत दूषित हो चुका है। फैक्टरियों से निकला हुआ जहरीला पदार्थ, कचरा, मलबा, घरों के कूड़े से निकला हुआ प्लास्टिक, गंदगी, त्योहारों का जमा हुआ कचरा और ना जाने कितनी ही चीजें नदियों के पानी में मिलकर प्रदूषण फैला रही है।

 

इन सब बिंदुओं के विपरीत कुछ अच्छे पल, कुछ अच्छे लम्हे भी हैं मेरी झोली में। एक सुनसान खूबसूरत जंगल में बहते हुए, जब मैंने एक थके हुए राहगीर की प्यास बुझाई थी, तब बहुत अच्छा महसूस हुआ था। बाग में खेलते हुए छोटे बच्चे ने जब मिट्टी में सने अपने छोटे-छोटे हाथ मुझमे धोए थे, छप-छप करके मेरे पानी के साथ खेल किया था, तब अत्यंत आनंद आया था।  

त्योहारों के वक्त में, जब मेरे आसपास भीड़ उमड़ती है, मेले लगते हैं, खूब रौनक होती है, सभी चेहरों पर मुस्कान होती है, तब बहुत अच्छा लगता है। त्योहारों में अलग ही खुशी होती है, सभी लोग: बच्चे, बूढ़े, जवान, महिलाएं, छोटी बच्चियां, लड़के – एक ही जगह एकत्रित होते हैं, भिन्न भिन्न प्रकार के व्यंजन बनते हैं, हर्ष उल्लास का पर्व सा होता है, यह सभी बहुत खुशनुमा लगता है।

परन्तु बहुत से पल ऐसे भी होते है, जब मन भाव विभोर हो जाता है। जीवन काल पूरा होने पर, जब मनुष्य मृत्यु की गोद में समा जाता है और मिट्टी का शरीर चिता पर जलने के बाद राख में बदल जाता है, बस राख रह जाती है। जीवंत होने पर जो व्यक्ति प्यारा होता है, मृत्यु के बाद उसी को चिता की आग दिखाते हैं और अस्थियां नदी में बहते हैं : यही कटु सत्य है।

 

ऐसा लगता है मानो उस राख में मनुष्य का सारा जीवन है और मैं यह सब महसूस कर पाती हूँ।  मनुष्य के सपने, उम्मीदें, इच्छाएं; सब कुछ, जीवन पूरा होने पर, बस बहा चला जाता है। मनुष्य ने सारा जीवन, जिन इच्छाओं के पीछे गँवाया, वही इच्छाएं पानी की धार के साथ बही चली जाती है।

और बस यही सबसे बड़ा फर्क है, मनुष्य और मुझ में; मैं कभी मरती नहीं हूँ, मेरी मृत्यु नहीं होती, और न ही मेरी कोई इच्छाएँ है। यह संभव ही नहीं है, चूँकि मेरी कोई जीवन अवधि नहीं होती है। मैं प्रकृति की देन हूं और प्रकृति तो सदा ही रही है। मैं थी, मैं हूं और मैं रहूंगी। मेरे दम पर भिन्न भिन्न प्रकार के प्राणी जीवित है, मैं जीवन देती हूं। कोई ऐसी वस्तु नहीं, ऐसा हथियार नहीं, जो मेरे प्राण ले ले।

और इसके उपरांत, वह एक बात : जो मैं चाहूंगी कि मनुष्य मुझसे सीखें, अपने जीवन में अपनाएं, वह है – बस निरंतर चलते रहना। कहीं रुकना नहीं है, चाहे कितनी भी बाधाएं, कितनी भी कठिनाई आ जाए, कितनी ही परेशानियां हो, कभी हार नहीं माननी, कभी थकना नहीं है।

बस कहीं टूट कर बैठना नहीं है, कहीं ठहरना नहीं है, बस चलते चले जाना है – जीवन की बहती हुई धारा के संग, जैसे जैसे जीवन बहता चला जाए, बस उसी प्रकार अपने अस्तित्व को ढाल लेना है, परिस्थितियों के अनुसार।

Explanation:

Answered by jarnailsingh81460944
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मैं एक नदी हूं । सतत प्रवाहिनी नदी । अन्त: सलिला, पयस्विनी, निर्झरनी, सरिता, निम्नगा, तटिणी, प्रवाहिनी, जलस्त्रोत स्विनी नदी । प्रकृति के अक्षय रूपों एवं निधियों में से एक मेरा रूप है । धरती के समस्त प्राणी समुदाय को अपनी अमृत जलधारा से जीवन प्रदान करने वाली नदी हूं ।

पशु-पक्षियों, मनुष्यों, खेत-खलिहानों के साथ धरती की प्यास बुझाने वाली नदी हूं मैं ! भारतीय संस्कृति में तो मुझे पतितपावनी, मोक्षदायिनी मानकर पूजा जाता है । मुझे सामान्य नहीं माना जाता है । मुझे तो देवी कहकर मोक्ष का एक साधन मानकर बड़ी श्रद्धा के साथ विभिन्न अवसरों पर पूजा जाता है । हिन्दू अपने पितरों के श्राद्ध का तर्पण मुझमें करके मोक्ष की कामना करते हैं ।

मेरे पवित्र जल में स्नान कर पुण्य-लाभ करते हैं । मेरा जन्म देवताओं की नगरी स्वर्गलोक से हुआ है । हिन्दुओं की ऐसी आस्था है । प्राकृतिक रूप से मैं किसी पहाड़ी या बर्फीली गुफा से निकलती हूं । पहाड़ियों के शिलाखण्ड से प्रसूत होकर मैं बड़ी-छोटी चट्टानों से टकराती, उछलती-कूदती हुई मैदानी भागों में बहती हूं । मेरे आसपास खेत पनपते !

पेड़-पौधे, हरी-भरी धरती मेरे ही दम पर सुशोभित होती है । मानव की सभ्यता वहीं पर बसी, जहां मैं थी । मेरे आसपास लोगों ने अपना जीवन बसाया । एक प्रकार से इस समस्त सृष्टि में बसी मानव सभ्यता का केन्द्र मैं ही रही हूं । चाहे वह सिन्धु घाटी की सभ्यता हो या मिश्र की सभ्यता ।

सभी की संस्कृति एवं सभ्यता, ज्ञान-विज्ञान का आधार मैं ही हूं और थी । मैं साक्षी हूं इस सृष्टि के निर्माण एवं विध्वंस की प्रक्रिया की । पहाड़ों को काट-काटकर मैं चमकते रेत के कणों को जन्म देती हूं । अपने मुहानों पर डेल्टा तथा द्वीपों का निर्माण भी करती हूं । मैं कभी रुकती नहीं हूं । सतत बहती रहती हूं ।

प्राचीन सभ्यता से लेकर वर्तमान आर्थिक, वैज्ञानिक, औद्योगिक सभ्यता के विकास क्रम में मेरा ही हाथ है । मुझ पर बड़े-बड़े बांध बांधकर एक ओर जहां ऊर्जा का उत्पादन किया जाता है, वहीं मेरे ऊपर से बड़े-छोटे पुलों का निर्माण कर मानव परिधि लांधकर अपने ही लाभ के साधन जुटाता चला जा रहा है । देव नदी गंगा से लेकर आज कई नदियां प्रदूषित हो चली हैं ।

मेरी उपयोगिता जानकर भी आज मानव कूड़ा-करकट, मल-मूत्र, जहरीले रासायनिक पदार्थो को मेरे जल में बड़ी ही निर्दयता के साथ बहाता चला जा रहा है । मुझे इसका बड़ा दुःख है । मैं तो सतत प्रवाहित होने वाली नदी हूं । बहना मेरा काम है, सकना मेरी नियति है । मैं मनुष्यों को भी यही प्रेरणा देती हूं । मेरी तरह बहते रहो ! सबका कल्याण करो ।

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