अविगत-गति कछु कहत न आवै।ज्यौं गूगै मीठे फल कौ रस अंतरगत ही भावै।परम स्वाद सबही सु निरंतर अमित तोष उपजावै।मन-बानी कौं अगम-अगोचर, सो जानै जो पावै।रूप-रेख-गुन-जाति-जुगति-बिनु निरालंब कित धावै।सब विधि अगम विचारहिं तातै सूर सगुन-पद गावै।।२।।
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ज्यों गूंगो मीठे फल की रस अन्तर्गत ही भावै॥ परम स्वादु सबहीं जु निरन्तर अमित तोष उपजावै। मन बानी कों अगम अगोचर सो जाने जो पावै॥ रूप रैख गुन जाति जुगति बिनु निरालंब मन चकृत धावै।
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