) अवधेश के द्वारे सकारे गई, सुत गोद में भूपति लै निकसे। अवलोकि हौं सोच विमोचन को, ठगि रही जे न ठगे धिक से।।
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अवधेस के द्वारे सकारे गई सुत गोद कै भूपति लै निकसे।
अवलोकि हौं तोच बिमोचन को ठगि-सी रही, जे न ठगे धिक-से।।
तुलसी मन -रंजन रंजित-अंजन नैन सुखंजन-जातक-से।
सजनी ससि में समसील उभै नवनील सरोरुह-से बिकसे।।
[एक सखी किसी दूसरी सखी से कहती है---] मैं सबेरे अयोध्यापति महाराज
दशरथ के द्वार पर गयी थी। उसी समय महाराज पुत्र को गोद में लिये बाहर
निकले। मैं तो उस सकल शोकहारी बालक को देखकर ठगी-सी रह गयी; उसे
देखकर जो मोहित न हों, उन्हें धिक्कार है। उस बालक के अँजन-रंजित मनोहर
नेत्र खंजन पक्षी के बच्चे के समान थे। हे सखि! वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो
चन्द्रमा के भीतर दो समान रूपवाले नवीन नीलकमल खिले हुए हों।
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