बूढे बैल की आत्मकथा हिंदी
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इंसान मुझे भोजन और संरक्षण देता। बदले में मैं उसे दूध, बैल, साँढ़ और गोबर देती। ऋग्वैदिक काल (6000 ईसा पूर्व) तक आते-आते मेरा गौवंश इंसान की अर्थव्यवस्था की धुरी बन चुका था। मानव के लिए मैं समृद्धि का प्रतीक थी। ऋग्वैदिक काल में मौजूदा अफ़ग़ानिस्तान से लेकर पंजाब तक बसे लोग आर्य कहलाये। आर्य प्राकृतिक शक्तियों जैसे इन्द्र, वरूण, अग्नि आदि की ही पूजा करते थे। क्रमागत देवताओं ब्रह्मा-विष्णु-महेश का अभ्युदय तब तक नहीं हुआ था। कर्मकांडों की प्रमुखता नहीं थी। कबीलाई शासन था। सैनिक भावना प्रमुख थी। राजा वंशानुगत तो होता था। लेकिन जनता उसे हटा सकती थी। वह क्षेत्र विशेष का नहीं बल्कि जन विशेष का प्रधान होता था। राजा युद्ध का नेतृत्व करता था। उसे कर वसूलने का अधिकार नहीं था। जनता ने जो स्वेच्छा से दिया, उसी से उसका खर्च चलता था। कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था थी। पितृसत्तात्मक समाज था। संयुक्त परिवार और वर्णाश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास) की प्रथा मनुष्य विकसित कर चुका था।
बूढ़े बैल की आत्मकथा :
मैं किसानों का मुकुट हुआ करता था I एक बार बिक कर मैं दुसरे के घर में चला गया न तो मेरा जोड़ा वहां था और न कोई पूर्व परिचित व्यक्ति मैं भाग कर फिर उसी घर में चला आया I गृहस्वामी ने मुझे रख लिया और उसके पैसे वापस कर दिए Iजब जवानी थी तो अन्य किसान भी हमारे जोड़ी को मांग मांग कर ले जाते थे I और किराए पर खेतो मेंं हल चलवाते थे लेकिन ,समय से अछूता कौन रहा है मालिक मुझे बहुत प्यार करते थे I जो मुझे देखता मेरे रूप रंग कद काठी और मेरे काम की सराहना हमेशा करते थे Iमैं कभी थकता नहीं था I भुखा भी रहूँ तो बैलगाड़ी में चलना हो या खेत में चलना हो या कोई और भार ढोना हो चलता रहता था I
तब भी मनुष्यों की बात देखिये ,घर में अगर कोई बच्चा बुद्धू निकल जाए तो उसे कहते हैं "धत ! बैल कहीं का ,तुमसे कुछ नहीं होगा " Iअब आप ये सोचिये ये सुनकर मुझे कैसा लगता होगा सबसे अधिक मेहनत मैं करता हूँ तब भी मेरा नाम गालियों में आता है I
मेरे बिना मेरे मालिक की खेती सुख जायेगी Iलेकिन क्या कहूँ उम्र किसी को नहीं छोड़ती ,आज मेरा बुढ़ापा आ गया है I आज मैं उतना काम नहीं कर पाता I मेरे गृहस्वामी भी मेरे पर गुस्सा करते हैं I अब तो मैं चारा भी उतना नहीं खाता I
हमलोगों के लिए और क्या व्यवस्था हो सकती है Iयाद आते हैं वो दिन बचपन या जवानी के दिनों में हरी हरी घास देखकर रस्सा तोड़कर ,ऐसा भागता कि ,मेरे पीछे गृहस्वामी उनके बच्चे डंडा लेकर मुझे पकड़ने आते Iजितना वे करीब आते मैं उतनी ही तेज़ी से भाग जाता I लेकिन उफ्फ !अब वो समय कहाँ ,मैं लाचार हो गया ,कमज़ोर हो गया Iअब उन दिनों कि बातें याद बनकर शेष बची हैं I बस इतना ही गृहस्वामी से कहना चाहता हूँ I
"खाना मत दो ,पानी मत दो ,पर कसी के हाथो मत देना ,
पिता तुल्य मैं तेरा हूँ चिता में अग्नि दे देना II