बिहारी की सतसई रीतिकाल की प्रसिद्ध रचना है, रेखांकित पद से समास है। o द्विगु समास ०ढूंदव् समास 0 कर्मधारय ० तत्पुरुष
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सतसई काव्य ने एक विशिष्ट परंपरा के रूप में प्रतिष्ठित होकर अपनी निजी विशेषताएँ विकसित की हैं। सतसई रचना की परंपरा "हाल" की गाथासप्तशती से आरंभ हुई। यह प्राकृत का ग्रंथ है तथा इसमें रस से सिक्त और लोकजीवन का सजीव चित्र प्रस्तुत करनेवाली गाथाएँ हैं। इसके बाद गोवर्धनाचार्य की "आर्यासप्तशती" संस्कृत में लिखी गई। अमरु कवि के "अमरुशतक" में भी शृंगाररस के मनोहारी श्लोक हैं। संख्यापरक इन ग्रंथों के प्रभाव से हिंदी साहित्य में सतसई रचना का चाव बढ़ा परंतु हिंदी साहित्य के प्रांगण में सतसई रचना का सतत विकास अपने निजी ढंग पर हुआ; वह अपने पूर्ववर्ती सतसई साहित्य से प्रभावित है परंतु उसका निर्जीव अनुकरण नहीं है।
हिंदी साहित्य में रीतिकाल के प्रमुख कवि बिहारीलाल की लिखी "बिहारी सतसई" ने बड़ी प्रसिद्धि पाई। हिंदी साहित्य में इस ग्रंथ का अत्यंत प्रचार हुआ तथा सतसईरचना के लिए इसने अनेक कवियों को प्रेरित किया। "बिहारी सतसई" की बढ़ती हुई लोकप्रियता देखकर अनेक मूर्धन्य कवियों के दोहों को भी बाद में "सतसई" का रूप दे दिया गया, जैसे "तुलसीसतसई"। मुक्तक काव्य का यह रूप इतना जनप्रिय हुआ कि हिंदी में सतसइयों का एक विशाल भंडार हमें उपलब्ध है। इनमें रहीम सतसई, तुलसी सतसई, बिहारी सतसई, रसनिधि सतसई, मतिराम सतसई, वृंद सतसई, भूपति सतसई, चंदन सतसई, विक्रम सतसई, राम सतसई के नाम प्रमुख हैं और ये सतसइयाँ मध्य युग में लिखी गई। आधुनिक काल में भी अनेक सतसइयाँ मध्य युग में लिखी गईं। आधुनिक काल में भी सतसइयाँ लिखी गईं जैसे हरिऔध कृत हरिऔध सतसई, वियोगी हरि की वीर सतसई भी बड़ी प्रसिद्ध और सामयिक रचनाएँ हैं।
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