बिहसि
लखनु
बोले
मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी।।
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूंकि पहारू।।
इहाँ कुम्हडबतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहि।।
देखि कुठारू सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना।।
भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहौ रिस रोकी।।
सुर महिसुर हरिजन अरू गाई। हमरे कुल इन्ह पर न सुराई।।
(1) काव्यांश के वक्ता हैं-
(क) श्री राम
(ख) लक्ष्मण
(ग) परशुराम
(घ) विश्वामित्र।
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