बाल गोविंद भगत के समाज सुधारक रूप का लेखक ने कैसे वर्णन किया है
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महर्षि दयानन्द ने तत्कालीन समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों और रूढियों-बुराइयों व पाखण्डों का खण्डन व विरोध किया, जिससे वे 'संन्यासी योद्धा' कहलाए। उन्होंने जन्मना जाति का विरोध किया तथा कर्म के आधार पर वेदानुकूल वर्ण-निर्धारण की बात कही। वे दलितोद्धार के पक्षधर थे। उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा के लिए प्रबल आन्दोलन चलाया। उन्होंने बाल विवाह तथा सती प्रथा का निषेध किया तथा विधवा विवाह का समर्थन किया। उन्होंने ईश्वर को सृष्टि का निमित्त कारण तथा प्रकृति को अनादि तथा शाश्वत माना। वे तैत्रवाद के समर्थक थे। उनके दार्शनिक विचार वेदानुकूल थे। उन्होंने यह भी माना कि जीव कर्म करने में स्वतन्त्र हैं तथा फल भोगने में परतन्त्र हैं। महर्षि दयानन्द सभी धर्मानुयायियों को एक मंच पर लाकर एकता स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील थे। उन्होंने दिल्ली दरबार के समय १८७८ में ऐसा प्रयास किया था। उनके अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश, संस्कार विधि और ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका में उनके मौलिक विचार सुस्पष्ट रूप में प्राप्य हैं। वे योगी थे तथा प्राणायाम पर उनका विशेष बल था। वे सामाजिक पुनर्गठन में सभी वर्णों तथा स्त्रियों की भागीदारी के पक्षधर थे। राष्ट्रीय जागरण की दिशा में उन्होंने सामाजिक क्रान्ति तथा आध्यात्मिक पुनरुत्थान के मार्ग को अपनाया। उनकी शिक्षा सम्बन्धी धारणाओं में प्रदर्शित दूरदर्शिता, देशभक्ति तथा व्यवहारिकता पूर्णतया प्रासंगिक तथा युगानुकूल है। महर्षि दयानन्द समाज सुधारक तथा धार्मिक पुनर्जागरण के प्रवर्तक तो थे ही, वे प्रचण्ड राष्ट्रवादी तथा राजनैतिक आदर्शवादी भी थे। विदेशियों का आर्यावर्त में राज्य होने का सबसे बड़ा कारण आलस्य, प्रमाद, आपस का वैमनस्य (आपस की फूट), मतभेद, ब्रह्मचर्य का सेवन न करना, विधान पढना-पढाना व बाल्यावस्था में अस्वयंवरविवाह, विषयासक्ति, मिथ्या भाषावाद, कुलक्षण, वेद-विद्या का मिथ्या अर्थ करना आदि कुकर्म हैं। जब आपस में भाई-भाई लड़ते हैं तभी तीसरा विदेशी आकर पंच बन बैठता है। उन्होंने राज्याध्यक्ष तथा शासन की विभिन्न परिषदों एवं समितियों के लिए आवश्यक योग्यताओं को भी गिनाया है। उन्होंने न्याय की व्यवस्था ऋषि प्रणीत ग्रन्थों के आधार पर किए जाने का पक्ष लिया।