बेरोजगारी का दूख
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बेरोजगारी की समस्या को माननीय प्रधानमंत्री जी ने रोजगार विषयक आंकड़ों की अनुपलब्धता की समस्या के रूप में चित्रित किया। स्वराज्य पत्रिका को एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा- यह रोजगार न होने से अधिक रोजगार के आंकड़े न होने की समस्या है। विपक्ष स्वाभाविक रूप से इसका लाभ उठाकर अपनी इच्छानुसार बेरोजगारी की समस्या को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत कर हमें दोष दे रहा है। बेरोजगारी मिटाने में मोदी सरकार की विफलता 2019 के चुनावों में भाजपा की संभावनाओं पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकती है। आगरा में सन् 2013 में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए मोदी जी ने देश की जनता से एक करोड़ नए रोजगार उत्पन्न करने का वादा किया था। जो आंकड़े उपलब्ध हैं वे मोदी जी के साथ नहीं हैं। इनसे सरकार की गहन विफलता और अक्षमता ही प्रमाणित होती है। इसलिए इन आंकड़ों को अपर्याप्त बताना प्रधानमंत्री जी की राजनीतिक मजबूरी है।
इंडिया स्पेंड की एक रिपोर्ट में इकॉनॉमिक सर्वे 2016-17 के हवाले से बताया गया है कि 2013-14 के 4.9 प्रतिशत की तुलना में बेरोजगारी की दर बढ़कर 5 प्रतिशत हो गई है। जुलाई 2014 से दिसंबर 2016 के बीच 8 मुख्य सेक्टर्स में 641000 नए रोजगार उत्पन्न हुए। जबकि जुलाई 2011 से दिसंबर 2013 के मध्य इन्हीं सेक्टरों में 1280000 नए रोजगार पैदा हुए थे। इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन की एक रिपोर्ट बताती है कि बेरोजगारों की संख्या में क्रमिक वृद्धि की आशंका है और यह 2017 के 1.83 करोड़ से बढ़कर 2018 में 1.86 करोड़ और 2019 में 1.89 करोड़ हो सकती है। ब्यूरो ऑफ लेबर एंड स्टेटिस्टिक्स के अनुसार सन 2014 में 4.80 करोड़ लोग रोजगार कार्यालयों में पंजीकृत हुए। किन्तु इनमें से केवल 1 प्रतिशत लोगों को रोज़गार मिल पाया। आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के अध्ययन के अनुसार फरवरी 2018 में रोजगार कार्यालयों के जरिए उपलब्ध कराई जा रही नौकरियों के लिए 4 करोड़ 10 लाख लोग प्रतिस्पर्धा कर रहे थे। नौकरी तलाशने वाले बेरोजगारों की संख्या 2015 के 3 प्रतिशत की तुलना में 2018 के प्रारंभ में 7 प्रतिशत हो गई है।
इस भयावह स्थिति के बावजूद भी सरकारों में एक गहरी संवेदनहीनता व्याप्त है। उत्तरप्रदेश जैसे अनेक राज्यों में नौकरियों के लिए आयोजित होने वाली परीक्षाएं बारंबार स्थगित होती रही हैं और वे लाखों बेरोजगार जो इनके लिए आशान्वित हैं बुरी तरह हताश और निराश हो चुके हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए लिया जाने वाला भारी भरकम शुल्क बेरोजगारों पर एक बड़ा बोझ है। प्रतियोगी परीक्षाओं के आयोजन के दौरान परीक्षा केंद्रों के आबंटन में अनियमितता के पीछे यदि निर्धन प्रतियोगियों को इन परीक्षाओं से वंचित करने की क्रूर मंशा नहीं है तब भी यह शासन के घोर असंवेदनशील रवैये का परिचायक तो है ही। हाल ही रेलवे भर्ती बोर्ड की परीक्षाओं के दौरान उम्मीदवारों को हजारों किलोमीटर दूर परीक्षा केंद्र आबंटित किए गए थे जिन तक पहुंचने के लिए लम्बे समय और भारी राशि की आवश्यकता थी। मामला प्रकाश में आने के बावजूद भी पूरे प्रशासन तंत्र का रवैया कुछ ऐसा था कि आजकल तो कुछ हजार रुपए खर्च करना हर किसी के बस का है और यह राशि बहुत मामूली है। नौकरियों के लिए न तो रिक्तियां पर्याप्त संख्या में निकल रही हैं और न ही जो रिक्तियां निकल चुकी हैं उन पर भर्ती हो पा रही है। यही कारण है कि बहुत सारे बेरोजगार नौकरियां देने का वायदा करने वाली फर्जी एजेंसियों के चक्कर में फंस कर अपनी जमा पूंजी गंवा रहे हैं। सेना, पुलिस, रेलवे और ओएनजीसी में भर्ती के नाम पर लोगों से ठगी करने वाले संगठित गिरोहों का पर्दाफाश हुआ है किंतु ऐसे कितने ही मामले उजागर नहीं हो पाते।
हाल ही में तेलंगाना में ग्राम राजस्व अधिकारी के 700 पदों के लिए आए 10.58 लाख आवेदनों में 372 पीएचडी 539 एमफिल 1.5 लाख स्नातकोत्तर और 4 लाख स्नातक उपाधिधारी थे। इनमें से 2 लाख इंजीनियरिंग में स्नातक थे। जबकि न्यूनतम अर्हता इस पद हेतु केवल बारहवीं उत्तीर्ण होना थी। यह केवल एक छोटा सा उदाहरण है जो यह बताता है कि देश में लाखों बेरोजगार युवकों को उनकी योग्यता और क्षमता के अनुसार कार्य नहीं मिल पा रहा है। ऐसे कितने ही मामले समाचार पत्रों की सुर्खियां बनते रहते हैं। ऐसी घटनाएं यह भी बताती हैं कि इन नवयुवकों की शिक्षा पर देश, समाज और परिवार ने जो निवेश किया है वह किस प्रकार व्यर्थ हो रहा है। इन नवयुवकों ने अपनी युवावस्था के जो बहुमूल्य वर्ष इस शिक्षा को ग्रहण करने में खर्चे हैं वह किस तरह जाया हो रहे हैं। इस डरावने परिदृश्य में जब प्रधानमंत्री पकौड़े तलकर दो सौ रुपये प्रतिदिन कमाने को रोजगार बताते हैं तो दुःख मिश्रित आश्चर्य ही होता है। निश्चित ही केवल नौकरी ही रोजगार नहीं है और कोई भी काम छोटा नहीं होता। यदि कोई इंजीनियर या पीएचडी उपाधिधारी पकौड़े तलकर अपनी आजीविका कमाता है तो उसकी विनम्रता, साहस और परिश्रम पर गर्व होना चाहिए लेकिन यह स्थिति सरकार के लिए गर्व का नहीं अपितु शर्म का विषय है कि वह इतने क्षमतावान व्यक्ति की योग्यता का लाभ लेने में विफल रही।
बेरोजगारी की समस्या को हल करने के लिए विकास के केंद्र में मनुष्य को स्थापित करना होगा। मुनाफा आधारित अर्थव्यवस्था तो मनुष्य को मानव संसाधन समझती है और उसमें कटौती तथा युक्तियुक्तकरण को मुनाफे के लिए आवश्यक मानती है। वर्तमान सरकार को अपनी नीति और नीयत में बदलाव लाना होगा तभी इस समस्या के हल की दिशा में कोई सार्थक पहल हो सकेगी।