"बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है। "आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इस कथन को समझाइए।
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शुक्ल जी अपनी स्थापनाओं में अडिग थे. उन्होंने फिर से दुहराया कि क्रोध अचार या मुरब्बा तभी बनता है जब लम्बे समय तक सब लोग बिना किसी प्रतिवाद और सवाल किये क्रोध को ही एक मूल्य की मान्यता दे देते
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बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है| आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इस कथन से यह समझना चाहते है:
बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है इस बात से तात्पर्य यह कि जिस तरह अचार या मुरब्बा को बनाकर हम उसे एक पात्र में लंबे समय के लिए रख लेते हैं। उसी तरह क्रोध को भी यदि हम अपनी मन रूपी पात्र में लेंगे तो वह धीरे-धीरे अचार या मुरब्बे की तरह पककर बैर का रूप धारण कर लेगा। कहने का तात्पर्य है कि क्रोध को मन में नही रखना चाहिये नही तो वह बैर का रूप धारण कर लेता है।
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