ब्रिटिश काल में आंतरिक बाजार के उदय एवं विकास पर प्रकाश डालिए
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अंग्रेजी शिक्षा के कारण धीरे-धीरे लोगों की अभिरुचि बदल रही थी। यूरोपीय वेशभूषा और यूरोपीय रहन-सहन अंग्रेजी शिक्षित वर्ग को प्रलोभित करने लगा। भारत एक सभ्य देश था, इसलिए यहां अंग्रेजी माल की खपत में वह कठिनाई नहीं प्रतीत हुई जो अफ्रीका के असभ्य या अर्द्धसभ्य प्रदेशों में अनुभूत हुई थी। सबसे पहले इस नवीन नीति का प्रभाव भारत के वस्त्र व्यापार पर पड़ा। मशीन से तैयार किए हुए माल का मुकाबला करना करघों पर तैयार किए हुए माल के लिए असंभव था। धीरे-धीरे भारत की विविध कलाएं और उद्योग नष्ट होने लगे। भारत के भीतरी प्रदेशों में दूर-दूर माल पहुंचाने के लिए जगह-जगह रेल की सड़कें निकाली गईं। भारत के प्रधान बंदरगाह कलकत्ता, बंबई और मद्रास भारत के बड़े-बड़े नगरों से संबद्ध कर दिए गए विदेशी व्यापार की सुविधा की दृष्टि से डलहौजी के समय में पहली रेल की सड़कें बनी थीं। इंगलैंड को भारत के कच्चे माल की आवश्यकता थी। जो कच्चा माल इन बंदरगाहों को रवाना किया जाता था, उस पर रेल का महसूल रियायती था। आंतरिक व्यापार की वृद्धि की सर्वथा उपेक्षा की जाती थी।
इस नीति के अनुसार इंग्लैंड को यह अभीष्ट न था कि नए-नए आविष्कारों से लाभ उठाकर भारतवर्ष के उद्योग व्यवसाय का नवीन पद्धति से पुनः संगठन किया जाए। वह भारत को कृषि प्रधान देश ही बनाए रखना चाहता था, जिसमें भारत से उसे हर तरह का कच्चा माल मिले और उसका तैयार किया माल भारत खरीदे। जब कभी भारतीय सरकार ने देशी व्यवसाय को प्रोत्साहन देने का निश्चय किया, तब तब इंग्लैंड की सरकार ने उसके इस निश्चय का विरोध किया और उसको हर प्रकार से निरुत्साहित किया। जब भारत में कपड़े की मिलें खुलने लगीं और भारतीय सरकार को इंग्लैंड से आनेवाले कपड़े पर चुंगी लगाने की आवश्यकता हुई, तब इस चुंगी का लंकाशायर ने घोर विरोध किया और जब उन्होंने यह देखा कि हमारी वह बात मानी न जाएगी तो उन्होंने भारत सरकार को इस बात पर विवश किया कि भारतीय मिल में तैयार हुए कपड़े पर भी चुंगी लगाई जाए, जिसमें देशी मिलों के लिए प्रतिस्पर्द्धा करना संभव न हो।
ईस्ट इंडिया कम्पनी भारत में अपने आर्थिक और राजनीतिक हितों को आगे बढ़ाने के लिए सैन्य साजोसामान के महत्व को अच्छी तरह समझती थी। भारत में आयुध निर्माण करने वाले कारखानों की स्थापना सीधे ब्रितानी राज से जुड़ा है। सन १७७५ ई में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने कोलकाता के फोर्ट विलियम में आयुध बोर्ड स्थापित करने को स्वीकृति दे दी। इसी के साथ भारत में सैन्य आयुध के विकास का औपचारिक युग आरम्भ हुआ और यहीं से भारत में औद्योगिक क्रांति का भी आरम्भ हुआ। १७८७ में इच्छापुर में बारूद बनाने का एक कारखाना स्थापित हुआ। १७९१ में इसमें उत्पादन आरम्भ हो गया। १८०१ में कोलकाता के काशीपुर में गन कैरेज एजेन्सी स्थापित की गयी जिसमें मार्च १८०२ में ही उत्पादन शुरू हो गया। जब १९४७ में भारत स्वतन्त्र हुआ, उस समय १८ आयुध निर्माण कारखाने थे।[1]